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अष्टम सर्ग

असीम भीम व्योम में विमुक्त-पक्ष कीर-सा
अधीर एक पोत था समुद्र-तीर चीरता

कराल उर्म्मि -घूर्णियाँ, प्रसून-हार-सी उसे
फुहार ओस-बिंदु के खड़े प्रवाह मेरु-से

अजस्र शीर्ष-क्षत्र-से सहस्र वायुयान थे
प्रचंड मेघ-पुंज थे कि शैल पक्षवान थे

विघट्ट-अट्ट-श्रेणियाँ, कि धूम व्योम-दाह-सी
अखंड चंड लालसा, बढ़ी कि हव्यवाह-सी

नवीन क्षीण चौथ का, अतंद्र चन्द्र खो गया
घने महांधकार में विलीन तीर हो गया

सहस्र पोत-पुंज, ज्योति-कुंज-से उमड़ पड़े
सहस्र व्योम-चक्र, भीम नक्र-से घुमड़ पड़े

असंख्य रक्तबीज-सी ससज्ज सैन्य-मालिका
नवीन मुंड-माल को उठी सहर्ष कालिका

समीर हाँफता हुआ, दिगंत नापता फिरा
विरुद्ध बाड़वाग्नि से कहीं दवाग्नि से घिरा

कहीं प्रचंड वज़-सा, विवर्त-गर्त में गिरा
कहीं विलुप्त हो गया, कहीं उड़ा, कहीं तिरा

अनभ्र वज्-पात-से सुसज्ज पंक्ति टूटती
परंतु दृष्टि-वक्रता छुटे न प्राण, छूटती

समोद मृत्यु-गोद में विनोद मानते गये
प्रवीर शून्य व्योम में, वितान तानते गये

छुटे विपक्ष तीर से सपक्ष लक्ष नाग ज्यों
शतध्नि-शैल-श्रृंग से कढ़ी लवा-दवाग ज्यों

विकीर्ण वह्नि रश्मियाँ, दिशावदात हो गयी
धरा किरीट-शालिनी, निशा प्रभात हो गयी

सुमेरु सिंधु में धँसा, समुद्र व्योम-सा हुआ
सुधांशु अंशुमान-सा, दिनेश सोम-सा हुआ

समीप तीर के हुआ, विशाल एक पोत था
प्रदीप्त धूमकेतु था, कि मेरु स्वर्ण-श्रोत था

अनंत चंद्रिकावली, जयंत वैद्युती विभा
दिगंत में समा गयी, सहस्र सूर्य की प्रभा

अशेष रुंड-मुंड से पटी धरा, कटी धरा
समान जीत-हार में, अमान धुर्जटी धरा

अनाथ भावना हुई, समुद्र नेत्र का जला
विदीर्ण वज्र-हत्पटी, विलोक शोक-श्रृंखला

छुटे स्वतात-मात से, छुटे स्वबंधु-भ्रात से
लुटे मनुष्य थे कहीं विमुक्त-प्राण गात-से

भला हुआ कि मृण्मयी धरा न, हाय! गल गयी
भले कि शैल शैल थे, व्यथा न जो निगल गयी

भला समुद्र क्रुद्ध हो न भूमि को डुबो गया
भला कि ईश निर्गुणी, विरक्त हो न सो गया

भले कबंध, जो बचे दुखी जनार्तनाद से
न जीत बेधती जिन्हें कठोरतम विषाद से

सचिंत-सा खड़ा रहा प्रवीर वीर-चक्र का
मनुष्यता न पा सकी, निदान भाग्य वक्र का

कहीं मरीचियाँ कढ़ीँ, कहीं दिनांत हो गया
परन्तु हाय! युद्ध में समस्त ध्वांत हो गया

हरा मनुष्य ने दिया सुरेश, सूर्य, सोम को
स्वहस्त-न्यस्त-सा किया धरा समुद्र व्योम को

परन्तु हारता गया स्ववृत्ति के प्रभाव से
स्वदेश से, स्वजाति से, स्वबंधु से, स्वभाव से

विचार देवदूत-से अपंख व्योम में उड़े
परन्तु पाँव पाप के कगार से कभी मुड़े!

निसर्ग को भुजा किये अनंत कूप में गिरा
विकास प्राण में लिए, विनाश ढूँढता फिरा

किसी अमातृ वत्स को न माँ भले दिला सके
निमेष में उठा लिए, शिरस्थ लक्ष-लक्ष के

मिटी न प्राण की व्यथा, पुँछा न अश्रु गाल का
ससागरा वसुंधरा, किरीट धूल भाल का

मनुष्यते, अनंत में विलीन हो, विलीन हो
कहीं न व्योम से गिरे, दिनेश ज्योति-हीन हो

कहीं न पाप-ताप से, समस्त सृष्टि क्षार हो
भला यही निमेष में, धरा विमुक्त-भार हो

खड़ी नवीन मानवी नवीन प्राण-दान को
पुन: नयी मनुष्यता, पुन: नया विधान हो

विषाद को, प्रमाद को, भले न रोक हो वहाँ
मनुष्य के रचे नहीं, परन्तु शोक हों वहाँ

समस्त सद्-प्रवृत्तियाँ, समस्त सद्-विचार ले
नयी मनुष्यते उठो, विमुक्त-पंक क्षार से

उषा-मुखी निशा-सुखी दुखी कहीं न सृष्टि हो
अचिन्त्य आयु सर्वदा, यथेष्ट स्वर्ण-वृष्टि हो

अयत्न रत्न-संभवा, धरा अनुर्वरा न हो
समस्त शक्ति-सर्जिका वृथा परम्परा न हो

देखता राजीव चित्रित-सा खड़ा
यह प्रथम अवसर स्वशक्ति-विकास का
प्रेरणा बन कर नयन के सामने
चित्र था अंकित किसी के हास का

‘क्षुद्र सैनिक सैन्य-नायक आज हूँ
मैं कहूँ कैसे स्वकौशल ही इसे!
यदि न प्रतिषद प्रेरणा देती किरण
कौन हूँ, यह ज्ञात भी होता किसे!

‘और अब तो सामने ही लक्ष्य है
शक्ति का घन-पुंज, सुख अधिकार का
सफलते! सच मूल में तेरे सदा
अर्घ्य है नारी-हृदय के प्यार का

‘हो प्रशांत अशांत, द्वीप अदीप भी
जहाँ हिंसा कब वहाँ सुविचार है।
एक छोटे से अहं की तुष्टि को
क्षुद्र सारी सृष्टि का विस्तार है’

दिख पड़ा कुछ दूर पर ही सामने
अरि-कनक-ध्वज एक टीले पर गड़ा
तीर-सा राजीव आ द्रुत नाव से
कूद एकाकी उसे लेने बढ़ा

विकल विस्मित-सी हत-प्रभ सैन्य थी
पार्श्वचर पीछे छुटे मुँह देखते
मच गयी थी शत्रुओं में खलबली
दिख पड़े वे विवश घुटने टेकते

विजय अदभुत पा पड़ोसी द्वीप पर
जब फिरा राजीव कीर्ति प्रभुत्व ले
उठा स्वागत को समुद सब देश था
लोटती भव-भूतियाँ थीं पग तले

हर्ष ध्वनियों पर धरती पाँव,
तैरती आयी किरण सहास
चौंककर काँप उठा राजीव,
विजय-श्री-सी पा अपने पास

पराजित कल का, विजयी आज,
सैन्य-नायक-पद पर आसीन
नियति का यह क्रीड़ा-उपहास,
इसे दे देती उससे छीन

हृदय में शांति-स्नेह का स्वर्ग,
दृगों में आशा नव उत्साह
लालसा से लिपटा अभिमान,
प्राण में भरता शीतल दाह

इधर घायल की चीख कराह,
उधर जय-ध्वनि घन तूर्य-निनाद
परस्पर लेते मानो होड़,
सिंधु-झंझा से हर्ष-विषाद

धरा की पड़ी गगन में छाँह,
रुका था अरुण पूर्व गिरि-पार
विकृत मनुजाकृतियों की राशि,
बनी रण-चंडी का श्रृंगार