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‘क्या यही जीवन कि घटिका-सूचिका-सा मौन
चक्र में फिरता रहे दिन-रात, कातर हो न!
पतन-भय जिसमें नहीं उत्थान या व्यवधान
पल प्रहर नित एक-सी गति, एक-सा ही गान!

‘कहाँ वह उद्वेग, भावों का जलधि उत्ताल!
साम्य यह व्यक्तित्व के हित बन रहा जो काल
एक यंत्र विराट शासन का वही सब ओर
एक-सी लय में कँपाता भूमि-नभ के छोर

‘श्रेष्ठतर इससे नृशंस नृपाल का साम्राज्य
जड़ नहीं जो, चेतना जिसमें नहीं अविभाज्य
बुद्धि कुंठित यहाँ लुंठित अहम् का अभिमान
खींच समता ने लिये जैसे सभी के प्राण

‘कहाँ जीवन की तृषा वह, हर्ष, भय, उत्साह
मोह, आत्मिक तोष, चेतन का प्रबुद्ध प्रवाह
शक्ति का उत्कर्ष चिंतन का नवल वैचित्र्य
चिर-विकासोन्मुख, चपल जीवन-प्रवाह पवित्र?

‘यहाँ स्वप्न अपंख, सूखी कल्पना की बेल
पशु बना मानव रहा सब श्रृंखलायें झेल
साँस भी खुलकर नहीं पाता यहाँ मैं खींच
बूँट गयी ज्यों वायु भी सम हो सबों के बीच

‘प्रीति भी ज्यों एक साँचे में ढले सब प्राण
पा सकूँगा मैं शवों के इस नगर से त्राण!
मृत्तिका-जड़-यंत्र-सा ही क्याा न मैं भी आज
देखता नीरव प्रणय के नित्य नूतन साज!

‘यह हृदय का सत्य तिल भर रुके ज्यों ही, हाय!
फिर न मुड़कर लौटने का शेष तनिक उपाय
भीरुता फिर चोर-सी करती हरण सब शक्ति
ठोकरें देकर सिखाती अंध स्वामी-भक्ति

“वह कहाँ उत्ताप पौरुष का प्रबल हुंकार
दीप्तिमय आनन, नयन ज्यों धधकते अंगार
शक्ति प्राणों की, सतत दुर्लघ्य भ्रू-निर्देश
वेग दुःसह, ग्रीष्म के मध्यान्ह रवि-सा वेश।

‘वह कहाँ यौवन कि जिसकी आँच से ही काँप
हिम-शिला-सा हृदय नारी का पिघलता आप
एक हुंकृति में रुधिर उठता जलधि-सा खौल
थरथराते त्रस्त से भूगोल और खगोल

‘दीन हरिणी-सी सतत जो रही सेवा-लीन
मलिनता मुख पर निमिष भी देख थी सकती न
क्रुद्ध झंझानल निठुर मैं बढ़ चला दुर्दांत
रौंद चरणों से कली वह कल्पना-सी कांत

‘और आ पहुँचा सघन इस तम-गुहा के बीच
जहाँ जड़ जीवन न पाता स्वयं को भी खींच
नववधूत्व मधुत्व निष्प्रभ दीप की लौ तुल्य
अंध की मणि-सा हुआ यह बंध आज अमूल्य’

सोचता था खिन्नअ-मन राजीव बन उद्भ्रांत
चंद्र-किरणों में द्रवित ज्यों सिंधु सतत अशांत
खेलता था अलक में प्रात:-समीर सलील
चरण-प्रांतें पर बिखरती थीं लहरियाँ नील

‘आह कितनी दूर! इस विस्तृत जलधि के पार
पूर्व-जन्म-विलुप्त-स्मृति-सा वह सरल परिवार
इंदु के लघु खंड-सा वह वत्स दीन अबोध
दे रहा होगा पिता का उसे कौन प्रबोध?

अश्रु नयनों में भरे क्याक जोहती है बाट?
वह सरल-हृदया अभी तक खोल हृदय-कपाट
सहन-सीमा कब पुरुष की निठुरता का अंत!
किंतु नारी के हृदय की क्षमा-शक्ति अनंत

‘कर क्षमा देगी मुझे वह भुला मन का रोष
स्वयं को हतभागिनी देने लगेगी दोष
उड़ पहुँच सकता कहीं अब भी उसीके पास
मैं छुड़ा ये मकड़िका के पाश से भुज-पाश

‘भीत बालू की न पर मन की अनन्य प्रतीति!
मोह मुँहदेखा जहाँ का, आँखदेखी प्रीति
वरण किया प्रभात को जिसने कभी सोल्लास
बन गयी मेरी सहज ही आ गयी जब पास

‘चिर-अनघ, चिर-नव, चपल सौंदर्य कभी अनाथ!
आदि से ही था वहाँ तो एक तस्कर साथ’
भावना लौटी, गया चढ़ कर उतर ज्यों ज्वार
भ्रमर-गुंजन-सी हुई सहसा मधुर झंकार

‘आज क्यों मुख पर तुम्हारे खिंचा मौन विषाद?
यह किसीकी स्मृति फिरी इतने दिनों के बाद?
हँस रहे भू-नभ-जलधि, हँसती चपल वातास
उल्लसित इस सृष्टि में, प्रिय! एक तुम्हीं उदास!

आज का मधुपर्व-उत्सव, जन-विपिन के बीच
लिये जाता ग्राम-पुर-नर-नारियों को खींच
आज दर्शित हैं वहाँ अगणित कलामय कृत्य
सुरों की झंकार, तरुणों-तरुणियों के नृत्य’

‘प्राण’! भाराक्लांत मन के बज उठे ज्यों तार
शुष्क जीवन में बही क्यों यह सुधा की धार?
मैं नहीं हूँ इस तुम्होरें विश्व के अनुरूप
चाहिये मुझसे अभागों को अँधेरा कूप

स्वत्व का उनके जहाँ एकत्व का हो भान
कुंडली में मोह के पलता रहे अभिमान
चाहता मैं कर तुम्हें संपूर्ण निज में बंद
स्पर्श करने दूँ न मलयज को अलक की गंध

इस तुम्हारे देश से भी मन हुआ निर्वेद
हैं न जिसमें मान्य जन-मन के अनंत प्रभेद
क्या मनुज युग बाहु-पद का यंत्र ही है दीन?
भाव-ज्ञान-प्रवृत्तियाँ उसमें न सीमाहीन?’

हँस पड़ी चंचल किरण, ‘सच है तुम्हारा मोह
विश्व में पर प्रति-चरण पर प्रगति, निठुर बिछोह
मैं बनूँ पुतली, करो मुझको पलक में बंद
घूम पर तुम आप पाओगे पुनः निर्द्वन्द्व?

‘रूप दर्शक के दृगों में, वस्तु चिर-निष्प्राण
दीप की नव ज्योति, परिमल ही सुरभि का ज्ञान
प्रेम भी क्या जड़ गणित का क्रीत कोई भृत्य’
भाग से बढ़ता अधिक यह ज्यों चिरंतन सत्य

‘बाँध दें यदि सिंधु की हम ये लहरियाँ नील
कौन लहर इन्हें कहेगा! सिंधु होगा झील
दो न जीवन की विभा को बादलों से रोक
फैलने दो सूष्टि में निज प्राण का आलोक

‘आज कैसा चेतना का यह पुरातन मोह’
है वही यौवन कि जो प्रतिक्षण करे विद्रोह
प्रतिक्रिया संकेत जीवन का, परंतु विवेक
दो असम आपत्तियों में से चुनेगा एक

‘पूर्णता-हित पृष्ठ-गति लेना कहाँ का न्याय!
ध्येय जीवन का बढ़े, दिन-रात बढ़ता जाय
विश्व का नव रूप यह तो, एक नवल प्रयोग
ज्ञान-तत्वों का चरम उत्कर्ष, नव संयोग

‘तड़प मर जायें निरौषध, दीन जन के बाल
सभ्यता वह अन्न को तड़पा करें कंकाल!
भोग कर्मों का बताकर दें उन्हें हम तोष!
दें बना अधिकार-हित संघर्ष करना दोष!

‘मिल सका है यहीं जन-मन का यथार्थ स्वरूप
अर्थ-तूली से न बनते जहाँ रूप-कुरूप
जीविका से च्युत, बुभुक्षित क्यों रहे जन एक!
याचना क्योंन करे कोई दीन घुटने टेक!

‘सभी अंग समाज के सेवा सभी का ध्येय
सुख-विकास-समर्थता सब के लिये अभिप्रेय
चाहिये जितना जिसे उतना उसे हो प्राप्त
शक्ति भर सेवा, अधिक या कम नहीं पर्याप्त

‘क्यों बने कोई किसीका भाग ले धनवान?
सृष्टि के कल्याण से ही व्यष्टि का कल्याण
‘साध्य से न विरोध, साधन किंतु हो निष्पाप’
झुक गया राजीव दीपक-सा पवन में काँप

‘मुक्ति की ही कामना से विश्व विकल अशांत
बंधनों का जाल उस पर यह विकट, दुर्दांत
स्वार्थ-साधन की पिपासा सृष्टि का है मूल
मनुज से जड़ यंत्र के-से काम लेना भूल

शक्ति की छलना, बढ़ेगा स्वार्थ का अतिचार
क्या न फिर बँध जायगा अधिनायकों का तार?’
उठी किरण सहास, ‘यह तो मुक्ति का भ्रम मात्र
वस्तु चिर-अकलुष उसे क्या पात्र हो कि अपात्र

‘मूल तो यह है कि जग में वस्तु कया है सत्य
बुद्धि जिसके हित युगों से कर रही है नृत्य?
व्यष्टि या कि समष्टि?, जड़ या चेतना का खेल?
दिया किसने हमें इस अद्भुत धरा पर ठेल?

एक चेतन शक्ति का पीटा करो तुम ढोल
देखती हूँ किंतु मैं तो ढोल में बस पोल
कल्पना का सुख, मनुज की बुद्धि का शिशु दीन
सकल प्रश्नों का चिरंतन प्रश्न, अथ-इति-हीन

“जन्म-कर्मों का प्रदाता, अगुण, चिर-अविकार
भोगता सीमा-रहित निज निरंकुश अधिकार
वही तो ईश्वर तुम्हारा, वह हमारे हेतु
सृष्टि-नियमों का अटल, ध्रुव, कार्य-कारण-सेतु

‘दैन्य-दुःख-दारिद्रय का कारण लिया जब जान
पा चुके हम सभ्यता का रोग और निदान
फाड़ मुख भू पर खड़ा जो भीम दानव एक
कोटि जन जिसके पगों में झुके घुटने टेक

‘छीन पाये वह न कोटि सचेतनों का ग्रास
यह समाजीकरण जीवन का अपूर्व विकास’
घिर गये घनश्याम सहसा किरण का पथ रोक
झुक गयी चंचल चमकती नासिका की नोक

द्रवित कंचन-सा उमड़ता जलधि जैसे काँप
कह रहा था, ‘कौन लेगा मूल मेरा भाँप?
यह अनादि अनंत लहरों का अकल्पित जाल
चेतना का पवन जिस पर दे रहा है ताल

विश्व-दर्पण, नयन-नभ का यही मानस-चित्र
चूम क्षण-भर मृत्तिका को लीन होता, मित्र
‘कौन जाने, सत्य क्यान है?’ खींच ठंडी साँस
आ गया राजीव लज्जित-सा किरण के पास

‘सत्य मेरा तो इन्हीं श्यामल पुतलियों बीच
जो हृदय का मोह-भ्रम लेतीं निमिष में खींच
तर्क क्याा सौंदर्य-सा, बंधन न और कठोर
मैं पराजित, ले चलो चाहो मुझे जिस ओर

दृष्टि-पथ पर जो वहीँ कर्तव्य, सम्मुख आज
देखता हूँ मैं तुम्हारा फुल्ल, कुसुमित साज
मूर्त लज्जा-सी न विजयिनि, यों झुका लो भाल
लो समर्पण चेतना की यह रँगीली ज्वाल

‘रूप की प्रतिमे! मधुरिमे! विश्व-विभे अमोल!
प्राण! प्राणों में बसी करती रहो कल्लोल’

अरुणिमा लेकर कली की उड़ चली वातास
सकुचती छाया खड़ी थी आ विटप के पास
स्वर्ण-हंसी सी हसित थी सांध्य लहरें लोल
मिल रहे थे एक हो भूगोल और खगोल