usha

‘चाँदनी के कुंजों में मौन, खड़ी स्वर्गंगा-सी हिम-स्नात
तुम्हीं तो ऊषा बनकर, देवि! सिंधु-तट पर आयी थी, प्रात
पथिक यह पूछ न पाया नाम, त्राण-कर्त्ता को अपने देख
कर रही थी कृतज्ञता मौन, अश्रु की धारा से अभिषेक

‘तरंगों के केसर झकझोर, जलधि का गर्जन वह दुर्दांत
दीन मृग-शिशु-सा कंपित, भीत, पोत पग में झुकता था भ्रांत
झेल झंझा के झोंके भीम, नीम का पत्ता ज्यों सुकुमार
व्योम से टकरा आता लौट, मृत्यु-कर-कंदुक-सा हर बार

‘तीन दिन, तीन रात अविराम, पराजित रहा जूझता भग्न
पंक-धृत जन-सा क्रमशः हुआ पोत चीत्कारभरा जलमग्न
खुले जब नेत्र, परस से शीत, स्वर्ग की नभगंगा के तीर
देव-बाला-सी झुक, सुकुमारि! देखते देखा तुम्हें अधीर

‘कौन तुम, मृत्यु-करों से छीन, दे रही मुझको जीवन-दान
चंद्रमय जलद-लता-सी शुभ्र, पहन तारक-ज्योत्स्ना परिधान ?
मोतियों की माला-सा मंजु, स्वप्न-सा सुंदर है यह देश
जहाँ स्वर्णिम कुंतल की राशि, वदन-विधु का बनती परिवेश

‘साँस घुटने से पायी मुक्ति, खुली है ज्यों ही मेरी आँख
स्वर्ग के इस नंदन-वन बीच, आ गया उड़ कैसे बेपाँख?
लालसा जीवन की जग रही रूप का देख भरा भंडार
छोड़ क्यों दिया न लहरों बीच, चूमने मुझे मृत्यु का द्वार?

‘स्वयं निज छाया से अविराम जूझता सुख में जो अस्तित्व
प्रेम में ईर्ष्या-ज्वाला-दग्ध, विभाजित वही द्वैत व्यक्तित्व
कहाँ उसको त्रिभुवन में शांति, हृदय में जिसके जलती आग!
प्राण-विष-विशिष-विद्ध मृग-तुल्य, चला मैं अपने से ही भाग

‘देख तुमको जीवन का मोह, नवांकुर-सा लहराता आज
कौन तुम विधु की नूतन कला? नया यह कैसा मनुज-समाज ?’
श्रवण में पड़ते ही जो कूक, खोलते पाटल दल अरुणाभ
तरल-जलधारा-सी ध्वनि मंद, दे रही थी जीवन का लाभ

‘पड़ा पाया जलनिधि के तीर, तुम्हें मौक्तिक-सा सहसा प्रात
देखती हूँ तन पर ही नहीं लगा है मन पर भी आघात
बंधु, तुम इतने हुए विरक्त, मृत्यु से मुक्ति न देती हर्ष!
कौन-सी दुःस्मृति यह तन-प्राण कँपाती जैसे विद्युत्‌-स्पर्श ?

‘एक सुख में लिपटे दुख लाख, यही जीवन का शाश्वत रूप
भटकता मृग-तृष्णा में हृदय, विफल आशाओं का है स्तूप
मनुज चींटी-सा लघु असहाय, भाग्य-वश साँसें पाता खींच
बचा रहता तब तक आश्चर्य, विरोधी जड़ तत्वों के बीच

‘मुझे ही देखो पत्थर बना, हृदय जिसका सहते आघात
नहीं सुख से बीता दिन एक, न हँसती गयी एक भी रात
भस्म हो चुका निखिल परिवार, युद्ध-ज्वाला में शलभ-समान
अकेली फिर भी मैं दिन-रात, गा रही देश-भक्ति के गान

‘सृष्टि सचमुच अभाव का नाम, क्षणिक सुख, दुख-भय-शोक अनंत
अप्रस्तुत दुश्चिंता कृमि-तुल्य, काट देती छाया-मय वृंत’
सिहर-सा उठा विकल राजीव, नयन में देख अश्रु की बूँद
देर तक रही तलहथी गौर, अलक सहलाती पलकें मूँद

‘थकित हो, झेल सकेंगे वेग, भावना की आँधी का, प्राण’
मात्र मृत्तिका न मानव-मूर्ति, सहनशीला भू की संतान
टूट जाती अवलंबन डाल, बिखर जाता नीड़ों का गान
बलवती जीवन-इच्छा किंतु, नये करती पल में निर्माण

पराजय की आँधी में रचा, मनुज ने अपना जय-प्रासाद
विश्व-संस्कृति-पृष्ठों में हरी, अभी कितने प्रलयों की याद
ध्वंस के एकाकी अवशेष, निहित इसमें भी कोई अर्थ
करो फिर से जीवन-निर्माण, विगत पर अश्रु बहाना व्यर्थ!

‘सुधाकर-सा यह मोहक रूप, सुधा-सी शीतल यह मुस्कान
स्वर्ग-सी वसुधा पर तुम, देवि! मृतक को करती जीवन-दान
न विष-भक्षण कर अब तक व्यग्र, मिट चुका होता यह संसार
उठाता जो न धूल से उसे, मधुर नारी के उर का प्यार?

‘बह रहा इन नयनों के पार, स्नेह का कितना अक्षय स्रोत!
वही संसृति की प्रेरक-स्फूर्ति, ज्वलित उससे ही जीवन-ज्योति’
कपोलों पर दौड़ी अरुणिमा, झुकी पलकें आँखें पा चार
कर रही थी निश्वास-तरंग, नसों में नव-शोणित-संचार

एक नव सृष्टि खोलती आँख, स्नेह की छाया में मृदु मौन
बाँध नयनों में बंदनवार, दे रहा था आमंत्रण कौन?
बीतते प्रहर, दिवस, सप्ताह, पा रहा था परिचय विस्तार
एक विस्मृत-सा स्वप्न-अतीत, झलकता कभी क्षितिज के पार

करुण विस्मृति के चारों ओर, कर्म-मय जीवन बुनता जाल
बाँधता यौवन-मृग को रूप, मोहिनी तंद्रा दृग की डाल
एक दिन वासंती निशि-मध्य, नृत्य का होते ही अवसान
चाँदनी की छाया-सी शिथिल, कुंज में लेटी कर मधु-पान

कुमुद से झुका अपांग सलील, किरण बोली कानों के पास
‘आज जाने जी को क्याी हुआ? अटकती-सी आती है साँस
और ही आज पवन की दिशा, और ही रजनी का श्रृंगार
हँस रहे ज्योत्स्ना पी नक्षत्र, ऊँघ-सा रहा निखिल संसार

‘चरण कुंठित फूलों से बँधे, अधर की हँसी हुई अपराध
लुटा सर्वस्व हृदय में आज, भिखारी बन जाने की साध
टूटता धागे-सा संकल्प, बिखरती मणियों-सा व्यक्तित्व
न पाती युग बाँहों में बाँध, चेतना दिखलाकर स्वामित्व

‘स्पर्श से विकल बीन-से प्राण, निकलती सिसकी-सी झंकार
आज तुम चले न जाओ दूर, क्रूर शैशव से चिर-अविकार’
देखता था विस्मित राजीव, चपल पावस-सरिता उद्दाम
चली मानो जलनिधि की ओर, हसित, कूजित, मद-भरित, सकाम

गौर ग्रीवा पर बिखरे केश नयन में अलस, मधुर अनुराग
शरद पूनो नंदन-तरु-तले, आ गयी ज्यों सपने में जाग
स्नेह-कातर गूँजी ध्वनि मंद, ‘शुभे! जीवन की जीवन! प्राण!
आह नारी! यौवन की देवि! सुहासिनि! सुंदरता की खान!

‘उड़ रहे केश-पाश लो बाँध, सुमुखि ! चुन लो कवरी के फूल
आज यह कैसा है उन्माद? गयी अंचल ढँकना भी भूल
रूप शैशव-सा विस्मित, भीत, स्नेह-अपराधी नत-शिर, मौन
छली यौवन के सम्मुख दीन, क्षमा की करे याचना यों न

‘आज मैं सह पाऊँगा, देवि! अनुग्रह का इतना उल्लास!
रहा कब से चरणों को चूम हृदय नूपुर-सा बनकर दास
जला, झुलसा, पवि की खा चोट बना छलनी, न हुआ निर्मूल
एक चितवन ममता की देख, हृदय-तरु उठा निमिष में फूल

‘कूकती आशा पिकी-समान, दक्षिणी मलय-स्पर्श से जाग
रहा है ज्यों कण-कण से फूट, स्नेह-कातर मन का अनुराग
जिऊँगा, पर जीने के बाद, कौन-सा होगा फिर आदेश ?
स्थान देगा सेवक को, देवि! तुम्हारा यह फूलों का देश?

किंतु.. ‘ रह गये अधर-दल काँप, कसक-सी उठी हृदय के बीच
अश्रु से धुला कमल-मुख एक, रहा था मानो पीछे खींच
रुद्ध पीछे फिरने का द्वार, चले, बस आगे बढ़ता जाय
न पल भर रुकने का अधिकार, आह ! जीवन कितना असहाय