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द्वितीय सर्ग

नयनों की नील गहनता में यौवन का आकुल ज्वार छिपा
अंचल में दीपक-सी झिलमिल, आत्मा का बिखरा प्यार छिपा
कंपित मृणाल पर नलिनी-सी लिपटी तुषार-पट में धवला
दल-त्यक्त मृगी निज नेत्र उठा सुनती थी ज्यों पद-रव पहला

नीरव थी मर्म-व्यथा कहती चितवन अनजान तारिका की
लुटती जाती थीं वीतराग निधियाँ निशि में कुमारिका की
सौरभ-प्रलंब-घन-सी काया जाती थी दूर उदास बही
चित्रित पाटल-से अधरों से बुझती थी मन की प्यास नहीं

दृढ़ भुज-बंधन में तड़ित-शिखा आँसू बन ज्यों बह चलती थी
मनुहारभरी त्यों-त्यों प्रिय की आकुलता फूट मचलती थी
‘रोमों में हाय रमा लूँगा दृग में बंदी कर लूँगा मैं
मेरी वसंत-कोकिले तुम्हें यों मूक न रहने दूँगा मैं

‘नारीत्व पराजित आज नहीं, पहली! सीमा है छूट रही
चेतनता यह छू लूँगा मैं, बल खा-खा कर जो टूट रही
मलयानिल में ढुलते, देखो, कलियों के केसर के प्याले
पहली सुहाग की रजनी है, इतना मत मान करो, बाले!’

निष्प्रभ तारावलि, विधु नभ में ठंडी साँसें चुप भरता था
उर-वसन उड़ाकर प्रात-पवन दोषी-सा मन में डरता था
चरणों पर भग्न मुकुर-सा था बिखरा किशोर-वय का सपना
‘नारी की अंतिम नियति यही, ‘ प्रतिबिम्ब देख कहती अपना’

दिन ढलता, रात बीत जाती, धीमा होता जाता गुंजन
जीवन की हलचल में खोया क्रमश: नयनों का सूनापन
गृहिणी के नीरव गौरव में, नारीत्व हुआ बंदी भय से
जल रही देव-मंदिर में हो निष्कंप प्रदीप-शिखा जैसे

समतल पर बहता निर्झरिणी, गति थी, गति में उन्माद न था
ज्यों रिक्त लहरियों का नर्तन, कुछ भी फिर इसके बाद न था
मधुऋतु में पतझड़ देख दुखी कोकिला कुहक उठती तरु में
ज्यों हरित शस्य की कलम एक जल बिना सूखती हो मरु में

ईर्ष्या-विक्षोभ भरे मन से असफल राजीव निरखता था
‘सुख के भीतर यह दुख कैसा?’ मन बारंबार बिलखता था
‘कृश अमरबेलि की छाया-सी विधु-रश्मि पकड़ कर नाच रही
यह कौन रहस्यमयी नभ में, विद्युत-सी मार कुलाँच रही

‘माधुर्य-पिपासा दूरी से भरती प्राणों के बीच रही
सुंदरता यह मृग-तृष्णा-सी अब भी नयनों को खींच रही
नारी का हृदय अगाध सिंधु तिरने का आकुल आग्रह क्यों?
भुज-पाशों में भरने पर भी, अतृप्ति, विफलता रह-रह क्यों ?

‘मैं देख न पाऊँगा नीरव नयनों में कौतूहल क्या है
क्षण-क्षण उठने गिरने वाले वक्षस्थल में हलचल क्या है
गोधूली-अंकित चित्र सदृश सोचा करती क्याल उपवन में?
चिर-गूढ़ रहस्य रहेगा यह संसार बसा नारी-मन में?’

जल उठती आग उधर भी थी सूने में क्षण-क्षण धुँधवाती
यौवन का चढ़ता ज्वार मधुर किसको दे हलकी हो जाती?
वंदी शुक-सी घड़ियाँ गिनते दिन बीत न पाते जीवन के
एकाकीपन का भार कठिन शर-सा चुभता भीतर मन के

देखा करती श्लथ, कसे भ्रमर-शिजिनी, कुसुम-शर का प्रवेश
वन में नव कलियों का कूजन नर्तन, परिवर्तित प्रकृति-वेश
कर उठता था विद्रोह हृदय अपनी ही सत्ता के विरुद्ध
पर्वत की कारा में जैसे वंदी हो निर्झर मार्ग-रुद्ध

‘क्या जीवन, दीपक की लौ-सी साँसों का बुनते पट जाना!
चुक जाय स्नेह तो ज्योति-सूत्र औरों को देकर हट जाना!
पर जले स्नेह चुकने पर भी, मैं तो वह दीपक की बाती
लोलुप जाने किस आशा से निर्लज्ज साँस फिर-फिर आती !’

आते थे और चले जाते लहरों से निष्फल क्षण अनंत
मन की पीड़ा सहते-सहते धीरज का भी हो गया अंत
पावस-संध्या, गृह-कार्य-शिथिल तन तप्त तवे-सा जलता था
कजरारी आँखों का पानी दर्पण के संमुख ढलता था

नभ के अनंत सूनेपन में विद्युत-सी कौंधभरी स्मृतियाँ
तम-कुंजों में हँसती थीं ज्यों मधु-सपनों की छायाकृतियाँ
मेघों की श्यामल कारा में बंदी नवीन विधु-लेखा-सी
खींचती निकष-निशि के उर में करुणा की कंचन-रेखा-सी

‘उत्सर्ग बिना नारीत्व वृथा,’ कहती निज आकृति के समीप
ऊषा मन की व्याकुलता से दोलित आई पति के समीप
‘मेरे राजा!’ जलता था मन, उत्सर्ग वही पर एक भाव
“स्वामी! जन्मांतर के भर्ता! किससे दुराव! कैसा दुराव!’

तन काँप रहा था तिनके-सा बहता अथाह जलधारा में
‘सर्वस्व लुटा कर बदले में, पाऊँ बस एक सहारा, मैं
आधार किसी का पाकर मन सारा सुख-दुख सह सकता है
सर्वस्व समर्पण कर के ही नारीत्व सुखी रह सकता है’

दिख पड़ी नवल हिम-चूर्ण-धवल चपला निज नग्न विवशता में
चेतन-भावना विकार हुई ज्यों त्रिगुणों की समरसता में
जैसे प्रभात की दीप-शिखा झुक माँग रही हो स्नेह-दान
राजीव चकित-सा बोल उठा करुणा के अवनत घन समान

“यह संशय, भय, दुर्बलता क्यों? रानी! यह कैसी व्यथा आज
ये अरुण नयन, बिखरी अलकें, कह रहीं और ही कथा आज
मैं सह न सकूँगा यह ज्वाला जीवन-घट जो कर रही चूर
मेरी मानस-नभ-ज्योत्स्ने! तुम मुझसे क्यों इतनी दूर, दूर!

यह दुविधा मन का स्वप्न, उषे! तुम मेरी, सदा तुम्हारा मैं
जाने कब से बहते हम-तुम, सँग-सँग संसृति की धारा में
मन को ममता से खींच रहा संबंध वहीं कालांतर का
तुम छिप न सकोगी कोयल-सी भुज-पल्लव-अवगुंठन सरका

‘दो नयन भटकते फिरते जो रजनी के खोये तारा-से
मानस-मरु सरस न कर देंगे स्मिति-किरणों की मधु-धारा से ?
उर-बिंबित विभावधू के लग सो रहा क्षितिज पर नया इंदु
लूँगा चकोर-सा पी द्विगुणित यह अधर-सुधा मैं बिंदु-बिंदु

‘मेरी जीवन-निधि! मौन तुम्हें मैं और न लुटने दूँगा अब
यौवन के सुख जो विश्रृंखल भुजपाशों में भर लूँगा सब’
पल्ल व से कंपित अधरों को पीड़ा से कातर चाँप रही
ऋतुपति की बाँहों में नत-शिर लतिका हो जैसे काँप रही

‘पोंछो न अश्रु, प्राणों की यह पीड़ा, पलकों के तीर कढ़ी
सपनों के साथी छूट चुके नौका लहरों को चीर बढ़ी
जानती न सुख-दुख छाया-सी बस सदा तुम्हारे साथ रहूँ
झड़-झंझा में पतवार-सदृश पकड़े निज पति का हाथ रहूँ

‘सौरभ के हलके घन-सी मैं चरणों के पास बिखर जाऊँ
वर दो जग-ज्वाला में तप कर कंचन-सी और निखर जाऊँ’
पथ के कितने पर्वत जौ से अपने दो पाटों में दलती
कृश कोमलांगिनी सरिता जो भादों में भरी उमड़ चलती

जैसे हत-वसन नवोढ़ा-सी निःशेष-नीर वह मदमाती
रुकते ही वेग पुनः तट की बाँहों में सकुच, समा जाती
नभ-कुमारिका कंचन-वर्णी भ्रू-भंग सरोष घुमाती-सी
लघु बूँदों में बुझ गिरती ज्यों भू पर दीपक की बाती-सी

दुर्बल मन का संकल्प-पत्र आँसू की रेखा से लिखती
नारी निज कोमलता में भी दृढ़ प्रस्तर-प्रतिमा-सी दिखती
बेसुध तम-अलकों में बंदी, लावण्य-ज्योति, हत-रूप-रेख
राजीव कुसुम-सा काँप उठा, नीरव प्राणों का प्यार देख

फूटी मकरंद-लहरियों-सी सस्पंद पँखुरियों से झरती
वाणी अनुनय की स्नेहभरी मानस में मृदु कंपन भरती
‘मैं भिक्षु सदय स्मिति का मुझको, केवल चाहिये तुम्हारा सुख
वीणा-सा लेटा निर्निमेष देखूँ यह समिति से आनत मुख

इन नील गगन से नयनोँ के उस पार उड़ूँ मैं ज्यों मराल
छू लूँ मानस-तट मौक्तिकमय, भावों के कूजित विहग-बाल
व्यवधान न हो निज-पर का फिर, दिख रहे दूर जो माया में
छाया-सा लय हो जाने दो, ऊषे! किरणों की काया में’

भर आया कंठ ‘मुझे दे दो, रानी! निजत्व-क्षण स्नेहबिंधे
नारी! नव सुख की खान ! प्रिये! जीवन-संगिनि ! सौंदर्य-निधे!’
जीवन का पट ज्यों तार-तार स्मृति के धागों से सीती-सी
पनघट पर प्रिय-छवि-मुग्ध वधू, भरती हो गागर रीती-सी

बोली ऊषा, “दासी को क्यों इतना गौरव दे दिया, नाथ!
मैं हुई तुम्हारी वेदी पर घूमे थे जिस दिन साथ-साथ
पति सिवा और क्या नारी को, गति, मति, जीवन, संसार वही
निशिचंद्रक्षीण, फणि मणिविहीन, जल बिना मीन रह सकी कहीं!

यह मिलन-वसंत अनंत बने, पा प्रीति पल्ल वित बाहु-वृंत
मैं कनक लता-सी फूल, फूल, भर दूँ सुख-सौरभ से दिगंत
तारों के कोमल कंपन-सी मन की आकुलता ले निकली
तुम गीत, प्रतिध्वनि-सी जिसकी, मैं फिर-फिर आऊँ पास चली

टिक सकें न जिसमें भाव अपर, वह तीव्र अटल दुस्सहता हो
जीवन गंगा-जल-सा निर्मल, युग तट पावन कर बहता हो’
स्मृति-सा दूरागत पवन उड़ा कवरी की मदिर सुगंध गया
‘रमणी का हृदय रहस्य एक’ छूता मधुकर हिम-स्कंध गया

गंभीर सरल दृग-तारों में यह छिपी कहाँ चंचलता थी!
अवशिष्ट रही जो बाँहों में, केवल तन की उज्ज्वलता थी
बीती वसंत-वेला कितनी कलियाँ खिल-खिल कर फूल हुईं
वह आत्म-समर्पण ही जग में, नारी की पहली भूल हुई

प्राणों में अनजाना स्पंदन, नूतन प्राणों का अनुभव-सा
जीवन का तार अकेले में बजता रहता था नीरव-सा
संध्या-घन-अंचल में हँसता कर फैला लघु नक्षत्र एक
ऊषा स्वप्निल देखा करती खिड़की पर करतल युगल टेक

पाटल से रंजित फुल्ल जलद रच देते आकृतियाँ कितनी!
किरणों के कुसुमित कुंजों में उड़तीं शैशव-स्मृतियाँ कितनी !
‘मुझ-सी ही खड़ी गवाक्षों पर, काटा करतीं जो शून्य प्रहर
इस नील जलधि में बसे हुए हैं किन अजान परियों के घर?

‘प्रति संध्या उनके आँगन में कोलाहल यह मचता कैसा?
मेरे सूने मंदिर में भी छायेगा स्वर-उत्सव वैसा?’
हिम, काँस-कुसुम की डाली-सी झुक जाती चितवन प्रेमभरी
निद्रा के मिस भरने लगती नयनों में व्याकुलता गहरी

भुजबंधन सार्थक, अधरों में रोती थी परवशता मन की
राजीव तड़प कर जल उठता, चोरी यह देख स्वीय धन की
फूलों के भार दबी लतिका कोमलता में अलसाई-सी
मोती के पानी-सी झलमल मुख पर स्वर्णाभ लुनाई-सी

करुणा, ममता से भरता उर नत अधरों का चुंबन ले कर
दोषी-सा पोंछ स्वयं देता अलसित भौंहों के श्रम-सीकर
भय-ईर्ष्या-प्रेम-विकल मन का कट गया परीक्षा-काल कठिन
रवि बाँट रहा था फाल्गुन के मेघों को मुक्ताहल गिन-गिन

उड़ती तितलियाँ, सपंख सुमन मानो मधुकर-हित चले व्यग्र
किसलय-कंपित ले मंजरियाँ, अलकों-सी पलकों पर उदग्र
खोया अधिकार मिला फिर से आकाश-कुसुम अनहोना-सा
अपने को दे कर बदले में पाया बस एक खिलौना-सा

मातृत्व-महत्ता से मुख की कृशता भी शोभा पाती थी
बालारुण-सा निज अंक लिये ऊषा क्षण-क्षण मुस्काती थी
नयनों में नील कुतृहल-सा, अधरों पर स्मिति की तरल ज्योति
नंदन से चू आया भू पर, ज्यों पारिजात मकरंद-धौत

कोमल अनंग-सा अंग धरे उर की अतृप्त अभिलाषा में
कर फैला किलकारी के मिस कहता कुछ नीरव भाषा में
वह संधि-पत्र-सा जीवन के दुख-शोक डुबा सब अपने में
दो आत्माओं की गाँठ-बना हँसता जग-जगकर सपने में

कितना पुलकनमय यह जीवन! कितना सुन्दर यह नील गगन!
कितना सुख ! कितनी विह्वलता ! कितना उल्लास यहाँ क्षण-क्षण !’
खिलती हो मुग्ध चकोरी ज्यों, विधु का नित नव उत्कर्ष देख
फूला न चकोर समाता हो प्रेयसी-नयन में हर्ष देख

वे अंग, बिछलती हो जिन पर कमनीय तरलता लहरों की
चंद्रिका बनी मादक कितनी रजनी के पिछले प्रहरों की!
सित मेघ-खंड-सा हृदय कहीं, उड़ता जाता था दूर-दूर
विस्मरणभरा अवसाद-लोक चेतना जहाँ थक चूर-चूर

मेघों से लड़ ऊपर उठते सिर उठा हिमावृत शैल-शिखर
घाटियाँ हरित मुक्तावलि-सी जिनमें सरितायें गयीं बिखर
देखा जलनिधि को, ज्योत्स्ना को भुजपाशों में लेते मसोस
विधु-वदनी जो रोती जाती वेणी में तारक-कुसुम खोंस

मध्याह्र-किरण-मणि-वेणु-चपल वृष-शस्य-सिरों से घन-प्रवाह
तरु-कृषक खड़े-से दूर-दूर चुप देख रहे निज निधि अथाह
गहरी सुख-निद्रा में जैसे स्मृति-से, सपनों-से, घिर आते
वर्षा के पहले मेघ वही सागर तक जा फिर-फिर आते

कितनी ही बार मधुप सर से उड़ते घन-गर्जन-भीत गये
कितनी ही बार फिरे भी फूलों पर दुर्दिन जब बीत गये
शैशव के तीन वसंतों के अनुभव से भारी पलकों को
ऊषा सहलाती जाती थी, संचित कर स्मृति-सी अलकों को

कितना दुख-सुख, रोदन-गायन, रिस-मान, प्रेम-ईर्ष्या, उछाह |
कर्षण-आकर्षण, हार-जीत, कितना चंचल जीवन-प्रवाह !
दिन-मास किधर से आते हैं? किस ओर बहे जाते अजान?
सपना अतीत, सपना भविष्य, सपना है केवल वर्तमान!

‘माँ! माँ!” उर को ध्वनि बेध चली भारी साँसें, जलता ललाट
‘मेरे चंदा, आये न अभी, मैं हार गयी जोहती बाट’
‘माँ! माँ!’ ‘मेरी आत्मा के धन बेटा! यह आज हुआ क्या है
लजवंती-सा कुम्हलाता जो, कोमल मुख, हाय, छुआ क्याै है ?

बज उठे अजानी पीड़ा से सहसा प्राणों के तार-तार
यौवन का प्रथम प्रभात दिखा, ज्यों प्राची-क्षितिज-पयोधि-पार
नत-मुख, पीताभ, मलिन, विधु-सा, कृश, अपनी छाया में विलीन
कितनी दूरी से चल आया ले जलता जीवन स्नेहहीन!

कितना अंतर! पर जान पड़ा थे बँधे एक ही डोरी से
ज्यों वर्तमान में छिप अतीत मिलने आया हो चोरी से
कितनी मृदु स्मृतियाँ मानस में, विधु-किरणों-सी थीं नाच रही
जल उठी स्नेह पा दीपक-सी जो बुझी राख से आँच रही

‘ये मेरे नूतन मित्र, उषा!’ झुकता प्रभात शिशु पर सभीत
आया गवाक्ष से सिहरन-मय, मलयज का झोंका एक शीत
बाहर ढलती संध्या-किरणें, भीतर मन के उठ रहा ज्वार
पर-जले शलभ-सी प्रिय-पलकें, उठ-उठ गिरती थीं बार-बार

हँसता त्रयोदशी-शशि सलज्ज, दूरस्थ आम्र-वन को रँगकर
कढ़ते उड़-मधुकर मेघों के मुँदते शतदल-दल पर पग धर
किरणों-सी लौट चली स्मृतियाँ, सँग लिये विहग जलनिधि-तट के
नीरव-दिगंत, धूसर वन-पथ, रो पड़ते थे भूले-भटके