usha
मलयानिल कलियों में फिरता अलस, अधीर, अदृश्य
किसलय किसलय में जीवन का चिर-कमनीय रहस्य
तितली के चित्रित पंखों पर बैठ समय-शिशु मौन
उड़ता जाता था अनंत में, उसे पकड़ता कौन!
बंदनवार सजे घर-घर में, कुलवधुयें सोल्लास
मुक्त हँसी-सी बाहर निकलीं, छोड़ हृदय-आवास
केसर-पट, गैरिक-बिंदी-युत पूर्ण चंद्र-सा भाल
चंपक लतिकाओं-सी कर में लिये सुमन के थाल
नव गणतंत्र-दिवस का दिशि-दिशि था अद्भुत उत्साह
वह स्वतंत्रता का आकर्षण, सुख का शीतल दाह
एकाकी बैठी गवाक्ष पर होती उषा अधीर
मुकुल और राजीव गये थे दोनों गंगा-तीर
‘कितनी भाग-दौड़, आशा-असफलताओं का नृत्य
जीवन किसी अदृश्य शक्ति का जैसे वंदी भृत्य
जोड़ा करता कण-कण अपनी उदर-पूर्ति के हेतु
बाँधा करता जो निशि-दिन भू-नभ में रज के सेतु
‘क्या होता, धरती पर होती यदि न भूख या प्यास?
कोई दुखी, विपनन न होता कोई कहीं उदास
जैसे साँस स्वयं खिँच आती पवन पिये प्रतिबार
वैसे मनुज-बुभुक्षा पाती जीवन का आधार
‘महामारियाँ रोग न होते, हिंसा, युद्ध प्रचंड
आत्मारक्षण में न झगड़ती मानवता शतखंड
निर्दय शाशक, जिसने प्राणों का बंधन दे क्रूर
जीवन को कर दिया जीविका के साधन से दूर
सहसा दिखा प्रभात खड़ा था ठिठक द्वार के पास
दुग्धोज्ज्वल परिधान, हृदय का जैसे बाह्य प्रकाश
गौर वदन पर बिखर रहे कुछ कुंचित, काले केश
मेघमयी प्राची में पूनो के हिमकर-सा वेश
‘कहाँ वत्स? राजीव, कहाँ? गृह सूना-सा क्यों आज?
उमड़ रहा बाहर तो देखो कितना मनुज-समाज!
तुम्हीं मौन यदि तो इन सब का बतला दो, क्या अर्थ
केवल मन पर भार सदृश ये जय की ध्वनियाँ व्यर्थ
‘बुनता जाय चतुर्दिक जीवन यश की कारा क्षीण
उषे! अर्थ क्या उनका, मुड़कर, तुम यदि देखो भी न!
मेरा प्राप्य वही है अब त्तो, सजल तुम्हारी दृष्टि
चिर-एकाकी पंथ, गहन निशि, यह दुख-पूरित सृष्टि
‘हँस दो तुम पथ के शूलों में उग आयेंगे फूल
तनिक मुस्कुरा दो जाऊँगा मैं अभाव सब भूल
कल का संघर्षो का जीवन, आज विजय-त्यौहार
उषे! दिखा दो वह पहली आतुरता अंतिम बार
“जनता को जब कुचल रहे थे अश्वारोही कूद
बरसाते लाठियाँ शीश पर ज्यों भादों की बूँद
मैंने कुसुम-हार से झेले वे शत-शत आघात
क्योंकि तुम्हारी दृष्टि बीच में है, इतना था ज्ञात
‘पुलकित था मन, शरण अंक में पायेंगे निःश्वास
कितना गौरवमय होगा वह मरण चरण के पास’
‘मैं न समझ पाती इस क्रूर कल्पना का अभिप्राय
मरण देखती हूँ पुरुषों-हित बना प्रणय-पर्याय
‘यह दुख की मृदुता कि परीक्षा, जगा कारुणिक भाव
वे भी ऐसे संतापों में दिखलाते हैं चाव
व्यक्ति-निष्ठ मन उनका शंका का ढूँढ़े आधार
किंतु देश के कहलाते तुम नेता परम उदार
‘यह संवेदन-मय भावुकता नहीं तुम्हारे योग्य
रच देना है जीवन तुमको जन-जन के उपभोग्य
सुना आज विजयोत्सव होगा नगर-केंद्र-पथ बीच
लिये जा रहा है ज्यों कोई मन को बरबस खींच’
‘इसी लिये तो मैं आया था, उषे। यहाँ सोत्साह
किंतु अकेली पाकर तुमको बिखर पड़ा उर-दाह
जनता चली जा रही देखो उधर समोद, सगर्व
आओ, आज मनायें हम तुम मिल कर यह जय-पर्व
‘वहीं कहीं राजीव मिलेगा धरे मुकुल का हाथ
लौटेंगे संध्या से पहले हम चारों ही साथ’
बाहर भीड़ उमड़ती थी ज्यों सागर-लहरें पीन
चली उषा कोमल-पद पलकों के रथ पर आसीन
जैसे जल-धारा में अविचल विधु-कर-ज्योति प्रलंब
कहीं देखने पर भी सम्मुख दिखती बिना विलंब
वैसे हीं हिम-स्वच्छ गौर वपु, सभा-भूमि के बीच
निर्मल शोभा से जन-जन की दृष्टि रहा था खींच
सहसा हुई चतुर्दिक नभ से, सुमन-वृष्टि स्वच्छंद
कोकिल-कंठी कामिनियों के गूँज उठे स्वर मंद
गोरे हाथों में मंगल-आरती, दीप्त सीमंत
अरुण कपोल, अधर पाटल-से, तन सर्वांग वसंत
राशीभूत कल्पना छवि की, पुंजीकृत लावण्य
सौंदर्यनुभूति अंगीकृत, शोभा-शिखा अनन्य
उठी उषा नीराजन को, लट उड़ी मधुप-सी एक
दुग्ध-धवल चितवन ने मुड़कर किया सलज अभिषेक
पीछे आती चपल तरुणियाँ भरे लाज के थाल
घन-सरि-तीर नीर भरतीं ज्यों शत-शत विद्युत-बाल
गौर भाल पर गैरिक बिँदिया, कृश कटि, पीन उरोज
ज्यों विधु में रवि-उदय देखकर बढ़े सनाल सरोज
केसरिया साड़ी में लिपटी तनु-सुषमा सुकुमार
पीछे नागिन लटें झूमतीं, सम्मुख हीरक-हार
भौंह किसीकी धनुष बनी थी, करती शर-संधान
नयन झुके थे सलज किसीके अधरों पर थे गान
कोई जभी हटाती कर से मुख पर उड़ते केश
लगता था ज्यों पहुँच गया हो जलज भानु के देश
कर्णों में थीं जुही किसीके कच में हरसिंगार
ग्रीवा थी मोतिया किसीकी, कोई सदाबहार
दूर भीड़ में खड़ा देखता था अपलक राजीव
आज उर्वसी-सी लगती थी सुंदर उषा अतीव
गर्व भरे लोचन उठते थे, ज्यों विजयी सम्राट्
नत-सिर तुरगारूढ़ देखता निज साम्राज्य विराट्
ज्यों वसंत, मुकुलिता माधवी लता दूर से देख
कहता हो मन में-‘मेरे हित है प्रसून प्रत्येक
मैं ही मलय-भुजायें फैला लूँगा इन्हें समेट
यह लतिका निज हृदय काढ़कर करती मुझको भेंट
‘दूर चला जाऊँगा जब मैं ग्रीष्म-घनों के पार
रो-रो यह रज में लोटेगी तनु-आभरण उतार!
सहसा उठी क्षितिज पर श्यामल मेघ-मालिका भीम
काँप उठा राजीव, नहीं था जीवन-सुख निस्सीम
स्मित नयनों से देख रही थी उषा दूसरी ओर
ढँक प्रभात को, जहाँ ले रहा था जन-जलधि हिलोर
दोनों के नयनों में था खिल रहा एक ही भाव
टूट गया था आज हृदय का ज्यों काल्पनिक दुराव
शत-शत देहावरण भेदती युगल दृष्टियाँ साथ
आपस में टकरा गिर पड़तीं, उठतीं फैला हाथ
आनन से उठ रहा धुआँ-सा, दोनों में थी आग
दोनों की पलकों से चू-चू पड़ता था अनुराग
प्रेम-दुधारे के दोनों दिशि, प्रेमी युगल सहास
भेद रहे थे समुद स्वयं को, बँधे एक ही पाश
जाग उठी नस-नस में विष की लहर तीव्र दुर्दांत
लौट पड़ा राजीव, पीत-मुख, गृह की ओर अशांत
नयन उषा के मुड़े, दिख पड़ी भभक भयानक एक
वह राजीव, वही था शिशु-सँग, जागे भाव अनेक
काँप रह गया हृदय, जम गयी ज्यों सरिता की धार
वनस्थली की हरियाली में मानो पड़ी दरार