usha

दिन डूबा रजनी भी बीती, आ फिर मलिन प्रभात गया
प्रतिक्षण का प्रति-शब्द हृदय पर, करता नव आघात गया
हिम-मरंद से धुला सुमन-मुख, छिन्न पात्र था सौरभ का
हिमकर ज्यों धरती पर उतरा सूनापन समेट नभ का

उषा, प्रात जलनिधि-तट हँसती, उधर, सरोज सनाल धरे
इधर मंद होते दीपक से नयन किसीके स्नेहभरे
निस्तरंग सरिता-सा जीवन, जैसे दीप-शिखा निर्वात
कुसुम-कपोलों पर आँसू से, लिख पद-चिन्ह लौटता प्रात

एक अनंत विकलता सब में, जड़ हो अथवा चेतन हो
बार-बार समझाती शिशु-से मचल-मचल उठते मन को
‘आज नहीं तो कल स्मृति मेरी खींच उन्हें ले आयेगी
आत्मा के बिछोह को कैसे देह दीन सह पायेगी!’

मधुर विरह-पीड़ा से भीगी निशा-वधू की करुण पुकार
किरणों की वीणा पर बजती कभी शून्य खेतों के पार

मैं अमाँ की एक विस्तृत तान
चंद्रिका जिसकी नहीं जिसका न स्वर्ण-विहान
दूर मुझसे सिन्धु के दो कूल
नाव-सी मँझधार में आकर गयी पथ भूल
सो चुके दृग विफल करते तीर का संधान

गीत ने गति से किया विद्रोह
राग में अब कुछ नहीं आरोह या अवरोह
तार उतरे, साज़ बिखरा, हुए मूर्छित गान

तिमिर भी जलता मुझे छू हाय
पवन कंपित, साँस से बुझता नखत-समुदाय
कौन ले जाए उड़ा प्रिय तक हृदय का मान!

मैं अमाँ की एक विस्तृत तान
चंद्रिका जिसकी नहीं जिसका न स्वर्ण-विहान

अर्थ-हीन पुस्तक से दिन का पृष्ठ उलट जाती संध्या
वह सित-केशी, धूम-तारिका, वृद्धा, सुरदासी, वंध्या
दीन मधुकरी का-सा गुंजन देख मधुप का कमल-प्रवास
कभी गूँज उठती रजनी के कुंजों में स्वर-विभा उदास

‘बावली ! कुंजों में मत लोट
आ भ्रमरी! पुतली कर रक्खूँ तुझे पलक की ओट’
बीतेगी जब रात सुरभि ले आयेगा प्रिय तेरा
ज्ञात न पर मेरे जीवन का होगा कभी सवेरा?
तुझसे तो भारी है, पगली! मेरे दुख की पोट
प्रेम गया, गृह-परिजन छूटे, अपना हुआ पराया
निर्मोही को मोह न फिर भी, हाय, तनिक-सा आया
फूलों के तन पर दे बैठा कठिन वज्र की चोट
‘बावली ! कुंजों में मत लोट
आ भ्रमरी! पुतली कर रक्खूँ तुझे पलक की ओट’

दीन विहग-सा एक वत्स नित पड़ा उपेक्षित कोने में
आँसू भरे देखता रहता नील नयन के दोने में
कभी उमड़ कर उधर लौटता, रुद्ध मातृ-ममता का ज्वार
‘बेटा! मुन्ना! मेरे राजा! ओ दुखिया के प्राणाधार!

रूठे हुए पिता का तू भी, शांत नहीं कर पाया रोष
मैं दोषी बन गयी अजाने, पर तू तो था चिर-निर्दोष’
‘माँ। मैं ले आऊँगा उनको, मुझे बता, वे गये किधर?’
‘मेरे ये उदास लोचन दो, देखा करते, वत्स, जिधर’

‘रूठ गये क्यों?’ ‘वे ही जाने, विधि ने था लिख दिया यही’
‘कहाँ लिखा? ”ललाट पर” माँ वह मुझे सूझ क्यों रहा नहीं ?’
‘तू तो बातूनी है, बेटा! किसको दिखे भाग्य के अंक!
वह अदृश्य लिपि, जहाँ मानवी बुद्धि पहुँच, रह जाती रंक

अच्छा मुकुल उन्हें तू कैसे, पहचानेगा? बतला तो’
‘गति, मुख की वाणी, आकृति से, नाम पूछ फिर लूँगा, क्यों ?’
‘पर तू तो था चार वर्ष का, जब वे छोड़ गये मुझको
बोली और मुखाकृति, बेटा! समझ पड़ेगी क्या तुझको !’

“सुना, सुना वे बातें तूने भुला दिये मेरे सब खेल
माँ! तेरे आँसू से प्रतिपल, सिंचित रहती स्मृति की बेल
तू ही पूछ देख, चाचा, आ रहे आज कितने दिन बाद
बता, पिता-सी आकृति मेरी, वे भी सदा दिलाते याद’

देखा आँखें उठा उषा ने, ज्यों मन की छल-छाया हो
अथवा सतत तिरस्कृत यौवन क्षमा माँगने आया हो
“कहाँ-कहाँ ढूँढ़ा न स्नेह के उस एकांत पुजारी को!
मानभरे, मोहांध, हठीले, निज पर अत्याचारी को

‘एक भावना की रक्षा के लिए यंत्र-सा फिरा करूँ!
छाया पकड़ रज्जु की कब तक तम-अकूल में तिरा करूँ!
कब तक बाँध रखेगी मन को क्षीण श्रृंखला आशा की?
उषे! और कब तक दो जीवन जला करेंगे एकाकी?

“निर्मोही था हाथ पकड़ कर जिसने पथ पर छोड़ दिया
क्षण-भर में संबंध हृदय का, लघु तिनके-सा तोड़ दिया
रोक रखे जीवन को उसकी स्मृति की कल्पित कारा है
यह जड़ मोह हृदय का, जिसमें वंदी विश्व हमारा है

‘अब भी मेरे मन में है छवि वही तुम्हारी प्रेममयी
प्रेम-पुस्तिका में क्षेपक-सी, बन विवाह-वेदिका गयी
तप, भावना, प्रयोग, सभी का स्थान, किंतु जीवन है एक
तन की, मन की, जन-प्रियजन की रखनी होगी सब की टेक

यह नन्हा, मुख देखो, ऊषे! जीने का करता अनुरोध
झूठा संयम कर न सकेगा, आज चेतना का प्रतिरोध’
‘यह नन्हा मुख देख-देखकर ही तो जीती जाती हूँ
रोक-रोक रखती प्राणों को सुना-सुना कर–”थाती हूँ”

‘जीवन-पथ पर एक बार ही निर्णय अपना हो पाता
बस फिर तो आगे-आगे सब दृश्य स्वयं आता जाता
पति कह कर जिसके जीवन से गाँठ जोड़ ली जीवन की
भूल उसे सकती है नारी, भूल एक कहकर क्षण की!

‘वह तो प्रभु का अंश अनस्वर अग्नि-साक्ष्य-निर्मित नाता
विरह-मिलन के पलड़ों पर भी, प्रेम कभी तौला जाता।
हिम-प्रतिमा-सी सतत घुल रही यह काया प्रिय की स्मृति में
कैसे लिख पाऊँगी इस पर अन्य किसी की आकृति, मैं!

‘स्नेहाकुल-मन, नव-वय-बाला, जो बिक गयी तुम्हारे हाथ
वह मर गयी उसी दिन, जिस दिन पथ पर छूट गया था साथ
उसकी जगह खड़ी जो नारी प्रिय-वियोगिनी सीता-सी
कैसे आँखें मिला सकेगी, वह पर से परिणीता-सी!’

‘उषे? इसी भावुकता ने तो बेच दिया मन को बेमोल
अपना बंधन आप बनी जब नारी, कौन सके फिर खोल!
यही गर्व मिथ्या था जिसने, छुड़ा दिया था मुझसे साथ
यही गर्व लौटा देता है, आह! मुझे, नित खाली हाथ

‘मेरी हो कर भी मेरे-हित, रहती बनी परायी तुम!
प्रेमी घुट-घुट मरे, प्रेम की देती रहो दुहाई तुम!
उघड़ें सप्ताश्चर्य प्रकृति के पट हों सभी अनावृत भी
फिर भी गति रमणी के मन की, सदा रहेगी अविगत ही’

खिन्नी प्रभात तीर-सा निकला, उषा रह गयी बेसुध, मौन
बोल उठा लग मुकुल चरण से, ‘सिसक, सिसक, रोओ, माँ! यों न’