aayu banee prastavana

ऐसी लगन लगी प्राणों में, पीड़ा ही गलहार बन गयी
रोम-रोम ने रास रचाया, साँस-साँस त्यौहार बन गयी

नत स्नेहाकुल चितवन में भर, तुमने जो उस दिन दे डाला
मन को सतत सुवासित रखती, वह अमलिन फूलों की माला
प्रीति तुम्हारी, जले जगत में रस की भरी फुहार बन गयी

मस्तक काट चढ़ाया पहले, तब अमरों का लोक मिला है
तिल-तिल जीवन क्षार किया तब कविता का आलोक मिला है
मेरी टीस, कराह जगत के अधरों का गुंजार बन गयी

सारी आयु लुटाकर मैंने पल को छुआ काल का कोना
सब धरती की धूल बटोरी, तब पाया चुटकी भर सोना
मेरी सब साधना, तुम्हारा पल भर का श्रृंगार बन गयी

सुरभि, पँखुरियों का उन्मीलन, सबने मुग्ध नयन से देखा
सींचा पाटल-मूल किसीने, लाँघ कुटिल काँटों की रेखा!
वह तो करुणा-दृष्टि तुम्हारी, अनल-शिखा जलधार बन गयी

ऐसी लगन लगी प्राणों में पीड़ा ही गलहार बन गयी
रोम-रोम ने रास रचाया साँस-साँस त्यौहार बन गयी

1965