ahalya

‘लौटी रंभा-उर्वशी-मेनका मान हार
जो हृदय दीप-सा अडिग रहा चिर-निर्विकार
वह आज समर्पण को आकुल क्‍यों बार-बार ?’
ऋषि मन में चिंतातुर-से करते थे विचार
‘क्या आज पराजय होगी ?’

सहसा नभ-ध्वनि सुन, ‘सिद्धि तुम्हें दी स्रष्टा ने
मुनि! ग्रहण करो यह, व्यर्थ न मन शंका माने
बोले, ‘स्वागत है, जीवन-सहचर अनजाने!
क्या तुम प्राणों के क्षत-विक्षत ताने-बाने
मृदु स्मितियों से बुन दोगी?