ahalya
यह भग्न गेह, कृश नग्न देह, हिम-ताप-शीर्ण
निर्ज्योति पलक, उलझी अलकें, मुख जरा-जीर्ण
तुम, सुमन-मालिके इस कटक वन में विकीर्ण
पल में न गँवा दोगी निज छवि होकर विदीर्ण
मलयज के झकझोरों से!
क्या यहाँ चपल भ्रू-भंग, प्रणय के रास-रंग!
आश्रम यह चिर-वर्जित अनंग से, निस्तरंग
मानिनि! मैं कैसे कर पाऊँगा मान-भंग,
सीखे न कला के ढंग, काम के विविध अंग
जिसने चंचल पौरों-से?’