ahalya

कौतुकमय पलकें, अधरों पर ज्योतिर्लेखा
नव अनाघ्रात, अनबिंधी कली-सी स्मिति-रेखा
विस्मित विधि ने सुषमा-निधि-विधु-सा मुख देखा
उड़ती अलकों में इंद्रजाल-सा सपने का
पढ़ते निद्रा से जागे

वह निज से निर्मित आदि उषा नभ को रँगती
रति, रंभा, रमा, उमा जिसकी प्रतिकृति लगती
छवि वह सुर-नर-मुनि-वंदित, अभिनंदित-जगती
यौवन-विभ्रम से वृद्ध पितामह को ठगती
ज्यों उतर खड़ी थी आगे