ahalya
जैसे कर से छुट मुकुर गिरे भूपर अभंग
युग लोचन उठकर मिले, झुके, फिर उठे संग
सुगठित अवयव का आकर्षण, अकलुष उमंग
मन अनजाने उड़ चला गगन-दिशि, निस्तरंग-
जीवन-सागर लहराया
चलदल-सा काँप उठा रमणी का उर अधीर
उमड़े अकुलाती सरिता जैसे बाँध चीर
मानस में किसने छिड़क दिया सुरभित अबीर
जिसके हित मन में बसी हुई थी मधुर पीर
ज्यों आज वही दिख पाया