ahalya

‘थी शेष रात कुछ अभी, विकल फिर आया मैं
प्रियतमे ! तुम्हारी स्मितियों से भरमाया मैं
आओ, निकुंज की चलें पुलकमय छाया में
बुन रहीं जहाँ किरणें कुसुमों की काया में
कोमल प्रकाश की जाली

रानी! जीवन की ज्योति! प्रेयसी प्राणोपम!
लगता जैसे तुम मिली आज ही मुझे प्रथम
अंतर में भर दो, प्रिये! हृदय का प्रेम चरम
कल मिले या न मिल सके पुन: यह सुख-संगम
रजनी ऐसी मतवाली’