ahalya

मंत्रित भुजंग-सी दीप्त चेतना सलज, मौन
अंतर में स्तर-स्तर खोल गया दल-कमल कौन ?
रुकता पूनो का ज्वार, पुलिन पग धरे क्‍यों न!
नव छवि, नव वय, नव राग, भावना का त्रिकोण
बंदी जिसमें मन-मधुकर–

बेसुध-सा टकराकर फिर आता बारबार
कर्तव्य-ज्ञान, कुल-धर्म-ध्यान, सदसत्‌ विचार
पति-स्नेह, गेह-सुख, गत विदेह-स्मृतियाँ अपार
करतल पर ले नारीत्व, अमल प्रेमोपहार
प्रातः समीर-सी मंथर–