ahalya

जानी न रात कब ढली बात ही बातों में
मधु-स्नात कली-सी मली स्नेह की घातों में
बोली सरला वह प्रिय-कर ले निज हाथों में
‘तुम रहो भटकते मधुप न यों जलजातों में
उड़ने का अवसर बीते

उदयाद्रि-शिखर पर उषा हिरण्या रही डोल
तम-काक-मुखर, तरु-तल-खग-मृग के चपल गोल
द्रुत उठो, चलें प्रिय दूर प्रतीची-द्वार खोल
आमंत्रण देते जहाँ स्वर्ग-गमणि-सदन लोल
सुनधनु-तोरण से चीते’