ahalya
पगध्वनि सहसा, भुजबंधन-से खुल गये द्वार
पूजोपरान्त मुनि लौटे करते-से विचार
‘विभ्रम कैसा? मन आज विकल क्यों बार-बार?
तप-स्खलन-हेतु क्या यह भी कोई नव प्रहार?
कुछ नहीं समझ में आता
देखा सहसा सम्मुख जो चिर-कल्पनातीत
सुरपति कुटीर से कढ़े प्रात-विधु-से सभीत
थी खड़ी अहल्या विनत, लिए मुख-कांति पीत
स्मितमय भौंहों में अतनु छिपा था दुर्विनीत
दुहरी जय पर इतराता