ahalya
‘सागर भी मर्यादा यदि पल में भूल जाय
रक्षक, भक्षक! तो फिर किसकी जग शरण जाय!
सब नीति-व्यवस्था-धर्म-श्रृंखला छिन्नप्राय
असहाय मनुज का आज कौन होगा सहाय
ऋतु-विरत विश्व-प्रांगण में ?
‘धिक् सुरपति! जिस पर लुब्ध बने सुर-सदन-त्याग
तुम आये इस निर्जन में वही सहस्र-भाग
अंगों में होगी व्याप्त तुम्हारे ज्यों दवाग
यह अयश-कालिमा ले सिर पर, चिर-मलिन काग
तुम भटकोगे त्रिभुवन में!’