ahalya
लौटे मुनिगण करते दिशि-दिशि प्रभु-यशोगान
आश्रम से अनति दूर जड़ता ज्यों मूर्तिमान
थी जहाँ गौतमी बिता रही दिन तृण-समान
कह दिया किसी ने राजकुँवर युग छवि-निधान
मृगया के हित हैं आये
पुरजन-परिजन से तिरस्कृता अबला, अनाथ
सहती समाज की घृणा न कोई संग-साथ
त्यक्ता तरुणी को पारस-मणि-सी लगी हाथ
प्रमुदित, शंकित, गर्वित, लज्जित-सी उठ हठात्
उसने नव वसन सजाये