alok vritt
ओ अगम के शून्य लोकों में विचरती अप्सराओ !
चाँदनी के क्षीरसागर में चपल विधु की तरी पर
रात भर इस पार से उस पार तिरती,
बादलों की सेज पर सोयी तड़ित-सी
गौर अंगों की झलक से विश्व को बेसुध बनाती,
ओ अतनु अतिचेतनाओ!
आज इस जड़ प्राण के सूने अजिर में
मैं तुम्हें फिर से बुलाना चाहता हूँ;
भग्न तारों को सजाकर,
साधना के स्वर मिलाकर,
आज मैं फिर से तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ;
शब्द की ईंटें हृदय की भावना का लेप लेकर
मैं समय के स्रोत पर मंदिर उठाना चाहता हूँ
और भावी पीढ़ियाँ जिसमें पढ़ें इतिहास अपना,
आँधियों के शीश पर नवकल्प के ज्योतिश्चरण का
मैं वही दीपक जलाना चाहता हूँ.
टूटता है व्योम तो नक्षत्र तो टिकता नहीं है
काल का जो घूमता है चक्र रुकता है भला कब!
किन्तु पुरुषार्थी पुरुष ऐसे कभी आते यहाँ हैं
रोक लेते क्रुद्ध अशनि-निपात अपने करतलों पर
काल-कालिय के कुटिल विषमय फणों को नाथ देते
जो सुधा लाते सुधाकर को समूल निचोड़कर भी,
फोड़कर घट उर्वशी का
धँस अतल में
क्रुद्ध वासुकि के दशन को तोड़कर भी.
आज मैं लिखने चला अध्याय जो इतिहास का, वह
नव मनुजता का विजय-उद्घोष है,
सोये युगों से
वृद्ध भारतवर्ष के नवजागरण का गीत है,
देवत्व-प्रत्याशी धरा की प्रसव-पीड़ा से करुण
नवचेतना के जन्म का मधुपर्व है,
वह भूमिका है उस विराट् भविष्य की
जिसकी प्रतीक्षा में विकल हैं साँस रोके
सृष्टि-पल,
हैं जग रहीं भू की गहन गिरि-कंदराओं में छिपी
तम की अहल्यायें अमित
जिसके पदों से पूत होने के लिए।
इतिहास–
जो अंकित हुआ था वृद्ध तापस-अस्थि से
दिव-पृष्ठ पर,
जलयान ही जब चाहता था डूबना
बढ़ते निरंतर वृत्र-भुज-प्रलयाब्धि में,
इतिहास–
जो रघुवंशभूषण के समुद्रोत्तरण का
था आदिकवि ने कनकवर्णो से लिखा,
इतिहास–
जो कुरुक्षेत्र के रण-पीठ पर
अंकित हुआ था चक्र से घनश्याम के;
वैसा ग्रहों का योग जैसे आ गया था फिर यहाँ,
वैसा कठिन संग्राम,
वैसी ही भयानक भूमिका।
सबसे मनोहर था सनातन देश जो,
सबसे पुरातन, पूर्ण वैदिक सभ्यता
जिस भूमि पर फूली-फली,
फूटीं जहाँ से प्रथम किरणें ज्ञान की,
जिसकी गहन गिरि-कंदराओं में पली
दिक्कालजित मुनिसत्तमों की साधना।
जिसके पगों पर था गरजता सिंधु उन्मद सिंह-सा
झलमल गले में हीरकों के हार-सी
थीं झूलती गंगा, तरणिजा, गोमती,
गोदावरी, कृष्णादिका,
पहने मुकुट हिमवान का,
अज्ञान-महिषासुर-दलन दुर्गा-सदृश जो थी कभी
उस वीरप्रसवा देववंदित भूमि को,
आसेतुहिमगिरि उसी पुण्य-प्रदेश को
चिर-दासता के राहु ने था ग्रस लिया।
होती गयी रजनी गहन से गहनतर,
निज रूप की पहचान भी जाती रही,
चिरकाल से पिंजर-विवश मृगराज को
गिरि-श्रृंग का उन्मुक्त गर्जन भी गया हो भूल ज्यों।
संतान ऋषियों की जिन्हें कहते रहे
सुरलोक के जेता अमर मनु-पुत्र वे
श्रीहीन अश्वों-से विवश
दासत्व के रथ में जुते
मणि-पाश करते थे प्रदर्शित चाव से।
ऐसे तमोमय क्षितिज पर
उतरी किरण-सी भानु को,
इस देश की संचित तपस्या ही हुई साकार ज्यों,
सशरीर जैसे सत्य हो;
फिर पोरबंदर में हुआ अवतरण अभिनव ज्योति का
जिसको सहज ही देवताओं की मिली
श्री, सिद्धि, शक्ति, विभूति, धी,
आयुध नये ही प्रेम के।
यों पुण्यफल-सी वृद्ध भारत-भूमि के
छवि दिव्य मोहन की हुई थी प्रस्फुटित।
सहमे दनुज जो शक्ति से मदमत्त हो
शासन चलाते थे कुलिश की नोक से,
यों डगमगाये राजसिंहासन सुदृढ़
बजने लगीं साम्राज्य की चूलें सभी
मणि-दंड कंपित, शिथिल करतल से गिरा,
भूचाल वह आया कि नभचुंबी शिखर
आतंक, अत्याचार, शोषण, दंभ के
भयभीत होकर आप ही ढहने लगे।
आधघात जो दारुण हृदय पर थे लगे
उस रक्तरंजित क्रांति में,
जब दास ने
बेड़ी पगों की तोड़कर, होकर खड़े,
दी थी चुनौती विश्व के सबसे बड़े साम्राज्य को,
उन रक्त से गीले व्रणों पर हो गया
मृदु लेप चंदन का, सुधा का, शांति का,
ज्यों ठीक बारह वर्ष के कल्पांत पर।