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द्वादश सर्ग

धरती ने मुँदे नयन खोले
किसकी पायल के स्वर बोले
किसके घन कुंतल लहराये
सूखे अंकुर फिर उग आये

कटि-तट पर कंचन-कलश धरे
विष और अमृत के पात्र भरे
नीली घनमाला में छिपकर
यह कौन गगन से रही उतर!

जिस ओर चले ये पग जाते
इतिहास पलटने लग जाते
रीते कुबेर के घट होते
नंदन-कानन मरघट होते

मणिदंड हाथ से छुट जाते
धरती पर राजमुकुट आते
कट जाता शासन का पत्ता
मुँह के बल गिर पड़ती सत्ता

सन बयालीस का आया था
घन तिमिर देश में छाया था
पृथ्वी पर चारों ओर युद्ध
भाई के भाई था विरुद्ध

शासक होते थे छत्रहीन
बुदबुद-से सागर में विलीन
गढ़ पर गढ़ जाते थे लूटे
अंग्रेजों के छक्के छूटे

सब पासे उलटे पड़ते थे
हर रण से पाँव उखड़ते थे
जब पानी गुजर गया सर से
तब क्रिप्स चला अपने घर से

नेहरू के मन असमंजस था
‘क्या लड़े भला जो परबस था!
जब स्वतंत्रता मिल जाती है
तब शक्ति देह में आती है!

बापू ने रास शिथिल कर दी
अनुमति की मौन मुहर धर दी
चर्चिल की हुई परीक्षा थी
यह नेताओं को शिक्षा थी

‘मिलती स्वतंत्रता भीख कहीं!
पाते उसको बलहीन नहीं
जब धमक क्रांति की आती है
तब आजादी मिल पाती है

‘जब विषधर फण फैलाता है
अनुनय कुछ काम न आता है
जो निर्भग हाथ बढ़ाते हैं
मणि वही खींचकर लाते हैं

‘आँधी से लड़ना ही होगा
शिखरों पर चढ़ना ही होगा
चलना होगा अंगारों पर
तीखी कृपाण की धारों पर

‘यह कंटक-पथ, सुखधाम नहीं
कायर का इसमें काम नहीं
पहले पावक में स्नान करो
फिर स्वतंत्रता का ध्यान करो

‘जो सिर भेंट चढ़ाते हैं
आजादी वे ही पाते हैं
जब कमल आग में खिलता है
यह रंग उसे तब मिलता है!

स्वर गाँव-गाँव, घर-घर फैले
चल पड़े युवक दृढ़ निश्चय ले
नेताओं ने जयनाद किया
बापू ने सीना तान दिया

बोले कि यही अंतिम रण है
दीपक के बुझने का क्षण है
या मुक्ति देश की लाऊँगा
या देह-मुक्त हो जाऊँगा

‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो अब
संबंध नया ही जोड़ो अब
खोलो शासक का बाना यह
रिश्ता हो चुका पुराना यह

‘भारत की छाती से उतरो
मानवता का सम्मान करो
बच्चों की नहीं कहानी है
यह कालपुरुष की वाणी है!

सुनकर बापू का सिंहनाद
हो उठा त्रस्त साम्राज्यवाद
छिपकर उसने आघात किया
सिंहों को गढ़ में घेर लिया

पर आग न यह बुझ पाती थी
लंदन तक धुआँ उठाती थी
असहाय भले ही थे प्रहरी
थी टूट चुकी निद्रा गहरी

युवकों ने पीठ न दिखलायी
हँसते-हँसते गोली. खायी
जब तीव्र अनल में जलता है
तब कंचन खरा निकलता है

भाई-भाई का छुटा साथ
हो गये हजारों शिशु अनाथ
बहनें विधवा, असहाय वृद्ध
लुट गये देखते घर समृद्ध

खलिहान राख के ढेर हुए
नित अकथनीय अंधेर हुए
पर गांधी का रथ रुका नहीं
भारत का मस्तक झुका नहीं

थे महाराष्ट्र-गुजरात उठे
पंजाब उड़ीसा साथ उठे
बंगाल इधर, मद्रास उधर
मरुथल में थी ज्वाला घर-घर

हो गया असम का क्रुद्ध वेश
बापू का गढ़ था मध्यदेश
भट्टी बिहार में जलती थी
धरती अंगार उगलती थी

बलिया ने राजवसन पहने
उत्तर प्रदेश के क्‍या कहने!
प्रतिनिधि भारत की आत्मा का
वह तो पहला सेवक माँ का

जब क्रांति-लहर चल पड़ती है
हिमगिरि की चूल उखड़ती है
साम्राज्य उलटने लगते हैं
इतिहास पलटने लगते हैं

शोणित के नद लहराते हैं
तोपों के मुँह खुल जाते हैं
सब न्याय-नीति निष्फल होती
लुट जाते आँखों के मोती

हिंसा हिंसा से लड़ती है
पर प्रेम देखकर अड़ती है
जब फूलों से टकराती है
तलवार शिथिल पड़ जाती है

जो नहीं प्यार से थकता है
वह हृदय हार कब सकता है!
राही जो सदा सत्य-पथ का
कब केतु झुका उसके रथ का!

XXX

 

थककर सोयी थी भारत-भू
कारा में जगते थे बापू
‘बा’ की समाधि दिख जाती थी
मन में हलचल-सी छाती थी

‘क्या उसने जीवन में पाया!
तिल-तिल कर क्षार हुई काया
होगा स्वतन्त्र भारत लेकिन
‘बा’ देख न पायेगी वह दिन

मेरी सेवा में ही लय थी
वह मुझसे अधिक राममय थी
दे मुझे महात्मा-पद भास्वर
वह बनी नीवँ की ज्यों पत्थर

मुँह से कुछ भी न कहा उसने
सब कुछ चुपचाप सहा उसने
रहकर जीवन भर उदासीन
हो गयी सहज ही ब्रह्मलीन’

भर आये बापू के लोचन
हो गये अचल भी चंचल-मन
सोया दुःख जाग गया जैसे
थी खड़ी कह रही ‘बा’ जैसे–

‘कैसे बीतेगा कठिन काल!
अब कौन करेगा देखभाल !
थे आप भले ही मुक्त नाथ!
सेवा को तो मैं रही साथ

‘जो सबकी विपदा टालेगा
अब उसको कौन सँभालेगा!
हर जगह आपकी जय होगी
पर कौन बनेगा सहभोगी!

‘सबको तो देते रहे तोष
बापू ‘बा’ का भी रहा होश!’
‘बा’ रो-रोकर ज्यों कहती थी
दृग से जलधारा बहती थी

आये बापू को याद तभी
वे एक-एककर दृश्य सभी
लघुवयस, शोख़ियोंभरी, चपल,
जब प्रिया प्राण करती चंचल

वे भूलें जीवन की अपनी
जब थी उससे तकरार ठनी
‘कर साठ बरस का नेह चूर
वह निठुर निमिष में गयी दूर’

जागीं ज्यों-ज्यों स्मृतियाँ कठोर
मन की अधीरता बढ़ी और
जा रही प्रिया थी पुण्यधाम
बापू करते थे राम-राम