alok vritt
तृतीय सर्ग
‘मंत्र पुराने काम न देंगे, मंत्र नया पढ़ना है
मानवता के हित मानव का रूप नया गढ़ना है
सागर के उस पार शक्ति का कैसा स्रोत निहित है?
ज्ञान और विज्ञान कौन वह जिससे विश्व विजित है ?
मुझे सिंह की गहन गुफा में घुसकर लड़ना होगा
दह में धँसकर कालिय के मस्तक पर चढ़ना होगा
मुक्ति नहीं, प्जिरे में पक्षी कितना भी पर मारे
बिना युक्ति के राम न मिलते, कोई लाख पुकारे
“पर समुद्र-यात्रा में सहमति कैसे हो माता की
जिसके मन में अंकित है कुछ और, पुत्र की झाँकी ?
पूजा-व्रत-उपवास-निरत जो धर्मप्राण सरला है
गोरों के वैभव को कहती है, “आसुरी कला है
मद्य-मांस-मुक्ताचारी उस भ्रष्ट देश में जाकर
लौट सका है कोई अपना धर्माचरण बचाकर!
यद्यपि मोहन के चरित्र में तनिक नहीं है शंका
किंतु मोहिनी मायावाली वह सोने की लंका
उस काजल के घर से अमलिन कौन भला फिर आये !
मेरे भोले बालक को तो, चाहे जो, ठग जाये”!
जननी की आँखों को लगता पुत्र सदा बालक ही
कितना भी हो जाय बड़ा, रहता है घुटनों तक ही
कंस-विजय को दया यशोदा ने देवों की माना
कब, रावण का जयी, राम को कौसल्या ने जाना!
मिल पाये कैसे माँ का आदेश विदेश-गमन को?!
चैन न लेने देती थी चिता मोहन के मन को
माँ का आकुल प्रेम उधर श्रृंखला-सदृश लिपटा था
पंख तोलता उड़ने को नवयौवन इधर डटा था
पर अनुकूल पवन में धारा जब विरुद्ध आती है
चक्रित-सी, बेसुध, बेबस भी नौका बढ़ जाती है
मद्य-मांस-मदिराक्षी से बचने की शपथ दिलाकर
माँ ने तो दी विदा पुत्र को मंगल-तिलक लगाकर
पर बाला जो अभी देहरी पर यौवन की आयी
वर्षों का वियोग पति का सुनकर सहमी, थर्रायी
तड़प रही थी जो मछली-सी प्रिय के उर से लग के
जाने कैसे मृगी विकल वह रही बिना निज मृग के
‘देवि! हमारे घर में, माना, कुछ दिन तिमिर पलेगा
कोटि-कोटि, पर, दुखी गृहों में आशा-दीप जलेगा
सिंधु-पार ले गये उड़ाकर तस्कर जो अनजाने
जाता हूँ मैं आज उसी मोती का पता लगाने
लौदूँगा जब काल-सर्प के मस्तक की मणि लेकर
पूजेगा इतिहास तुम्हें भी श्रेय विजय का देकर’
कुछ ऐसे ही प्रेम-प्रीति के शीतल वचन सुनाके
प्रिय ने पोंछ लिये आँसूकण सरल, अबोध प्रिया के
और बढ़ गया उधर जिधर अंबुधि हिलोर लेता था
पूर्व और पश्चिम को मिलने नहीं कभी देता था
दूर सप्त सागर के विस्तृत अंतहीन कूलों पर
चपल भृंग-सा विश्व-विपिन के सुंदरतम फूलों पर
जिसका मणिमय केतु सदा लहराता ही रहता था
निर्विरोध, निर्बाध, निरंकुश निज गौरव कहता था
आया तीर-तीर की लहरों से निज गात बचाता
उस सागर-साम्राज्ञी के तट एक युवक मदमाता
कोमल-वय कच जैसे आया हो दानव-नगरी में
संजीवनी-शक्ति पाने को, सकुचाया-सा जी में
और बना संयोग, मिल गयी उसे देवयानी भी
प्रेममरा आतिथ्य, हृदय की मोहमयी वाणी भी
किंतु शाप ने किया न दूषित इस मधुमय क्रीड़ा को
समझ गयी सुकुमारी प्रियतम के मन की पीड़ा को
तन का नहीं मिलन, मन का उसने निर्मल व्रत साधा
वृंदावन के कुंजवनों में लुप्त हो गयी राधा
मंत्र सीखकर सत्यनिष्ठ जीवन का, कष्ट-सहन का
आत्मतंत्र का, लोकतंत्र का, चिर-स्वतंत्र नियमन का
आत्मशुद्धि का पाठ निरंतर मन-ही-मन दुहराता
जगदीश्वर को साक्षी रखकर माँ के वचन निभाता
करता ग्रहण हंस-सा पय को, वारि-विकार मिटाकर
विद्या-विनय-विवेक-प्रशंसा-प्रेम सभीका पाकर
विकसित होने लगा विमल व्यक्तित्व किशोर वयस का-
नींव-सदृश, टिकना था जिस पर भवन विराट सुयश का
नहीं अहिंसा की देवी से अभी मिलन होना था
उसे प्रथम निज दुर्बलता का ही दर्शन होना था
मिट जाते पर अंतर के कल्मष-विकार-दूषण सब
कंचन बनता शुद्ध अनल में उसे तपाते हैं जब
प्रतिनिधि बना पोर्टस्मिथ-शाकाहारी-सम्मेलन में
अतिथि बना जब अनजाने वह कलुषित किसी सदन में
बातों-ही-बातों में उस पर चली काम की माया
चंद्र-ग्रहण के लिए राहु ने मानो कर फैलाया
ज्वार वासना का उमड़ा, सद्ज्ञान बह गया क्षण में
लगा धधकने अंश ताम्र का नील-हरित, कंचन में
संकटग्रस्त भक्त को पाकर काम-हिरण्यासुर से
प्रकट नृसिंह हुए पत्थर से नहीं, मित्र के उर से
कामोद्वेलित बाँह छुड़ा साँपिन-सी ग्रीवा पर से
गतविकार बाहर ले आये उसे कलंकित घर से
माया डँसती उसे जिसे मायापति स्वयं उबारे!
जिसको रखते राम उसे किसकी सामर्थ्य कि मारे!
माँ को दिये वचन विचलित होकर भी टूट न पाये
आया जब परदेशी घर की ओर भुजा फैलाये
देखा, माँ आने के पहले ही घर छोड़ चुकी थी
दूर स्वर्ग में बसे पिता से आँचल जोड़ चुकी थी
कितने क्या-क्या भाव हृदय में युग से पलते आये
जिसके पूजन को दृग-दीपक तम में जलते आये
मंदिर में आकर देखा प्रतिमा हो लुप्त चुकी थी
पुष्प-चयन तक हार पहननेवाली नहीं रुकी थी
“माँ, ‘माता’ चिल्लाया ज्यों ही बालक, अकुलाती-सी
देखा–जननी खड़ी व्योम पर सजल मुस्कुराती थी
‘दुखी न होना पुत्र, न मिल पाऊँ यदि धरती पर मैं
सौंप गयी हूँ तुझको एक बड़ी माता के कर में
कोटि-कोटि पुत्रों के रहते भी वंध्या-सी होती
माता वह जंजीरों में जकड़ी, सदियों से रोती
राम-कृष्ण की माता वह, जननी गौतम-शंकर की
खोकर गौरव-मान, सेविका बनी पराये घर की
वचन एक ही मेरा है अब जिसे निभाना होगा
भारतमाता का कलंक यह तुझे मिटाना होगा
बंदी है स्वतंत्रता सीता-सी रावण के घर में
लौटाना है उसे राम बनकर इस महासमर में
चारों कोनों से आ-आकर चढ़ा चुके निज मस्तक
महाकाल की जिस वेदी पर वीर सहस्रों अब तक
उस वेदी पर पुत्र तुझे भी शीश चढ़ाना होगा
स्वतंत्रता का मंत्र करोड़ों तक पहुँचाना होगा!
सुत ने जोड़े हाथ, शीश पर चढ़ा वचन माता के
जागा सोया भाग्य देश का नयी प्रेरणा पाके