alok vritt

पंचम सर्ग

जिस गहन तम की गुहा में
भानु की किरणें न पहुँची थीं कभी,
जिस भूमि पर
स्वाधीनता की ज्योति तो जलती रही थी,
किंतु शीत प्रकाश उसका
एक ही पथ पर सदा बढ़ता गया था।
गहनतम होती गयी थी घन तमिस्रा श्यामता की,
ज्योति जितनी ही प्रखर गोरे कपोलों पर खिली थी
कालिमा उतनी सघन थी
श्याम पलकों के तटों पर

उस कुहावृत देश में
सहसा किरण-सी भानु की
उतरी प्रभामय एक आकृति क्षीण
सागर के किनारे,
नाम गांधी का हुआ उच्चरित जल-थल-व्योम में
विस्तीर्ण सागर के तटों को
लाँघकर बढ़ता गया वह नाम विद्युत की लहर-सा
प्रेम के मोहक अमर संगीत की झंकार-सा
जन-जन-हृदय में
दीप्ति-आशा-हर्ष का संचार करता

क्रूद्ध घेरे थी चपल उस पोत को
लहरें न केवल,
भीड़ गोरों की भयानक
झाग-से मुख से उगलती
दुर्वचन, गर्वोक्तियाँ, आक्रोश
हिंसक धमकियों से
वायुमंडल को कँपाती
तृषित नागों-सी
सुधा-घट के चतुर्दिक,
घेरकर ज्यों रथ दिवाकर का गगन में,
मंडली भीमांग मेघों की,
किलकती, कूदती, गाती, प्रमुद-मन–
“ले चलो इस दुष्ट गांधी को पकड़कर,
और इमली के बड़े उस पेड़ पर फाँसी चढ़ा दो’
और गांधी सुन रहे थे शांत, सुस्थिर
कुछ कुतूहल से भरे-से
रोकता था त्रस्त-सा कप्तान
तट पर उतरने से
किंतु भय क्या मृत्यु का रोके उसे जो
प्राण अर्पित कर चुका हो लोक-हित में !

जब अभय वे प्रात निकले पोत से निद्ठन्द्द, निर्भय,
सिंह-शावक ज्यों निकलता हो गुफा से
सुन श्वृगालों, पक्षियों का नाद
बाहर झाड़ियों में,
कुछ अजान, अबोध बच्चों ने पुकारा–
*यह रहा गांधी, यही तो है
कुटिल वह सर्प भारत की धरा का
चाहता है जो निगल जाना हमारी सभ्यता को!
क्रुद्ध आ पहुँची निकटतर भीड़ गोरों की उमड़ती
सिंधु की दुर्दात लहरों-सी उन्हें झकझोरती-सी
‘ठेलती-सी, साथियों से दूर करती,
बार-बार प्रहार करती
ईंट, रोड़ों, पत्थरों से, मुट्ठियों से
झेलता जिनको गया वह वीर अविचल,
माँगता ईसा-सदृश प्रभु से क्षमा उनके लिए जो
घेर हिंसक दानवों-से प्राण लेने को खड़े थे

और सहसा प्रार्थना की मूर्त प्रतिध्वनि-सी
तभी आयी वहाँ पर
प्रिय पुलिस कप्तान की निर्भीक पत्नी,
छत्र बनकर तन गया सिर पर चतुर्दिक प्रेम जिसका।
आ गये फिर शीघ्र ही रक्षक वहाँ कुछ
खींचकर लाये उन्हें जो
एक सुख-सौजन्य से पूरित भवन में।
भीड़ बढ़ती ही गयी उन्मत्त गोरों की निरंतर
क्रुद्ध, चिल्लाती, गरजती,
घेरती उस भवन को,
‘पावस-निशा में
घेर लें राकेश को ज्यों
भीम कज्जल बादलों की टोलियाँ,
जैसे नदी की बढ़ रही धारा,
उमड़कर
घेर लेती तीर के तरु को अचानक।
और होंठों पर सभी के धुन यही थी–
“चलो, गांधी को पकड़ लें’
और इमली के बड़े उस पेड़ पर फाँसी चढ़ा दें,
आ चुके थे पर चतुर नायक पुलिस के
बीर पत्नी के अधूरे कार्य को पूर्णत्व देने
और अनजाने अमर सौभाग्य भारत का बचाने

शीघ्र सैनिक का बनाकर वेश अपने प्रिय अतिथि का
साथ में दो छद्मवेशी दूत देकर
कर दिया सकुशल उन्होंने मुक्त राहु-समूह में से
इंदु मानव-चेतना का;
ज्यों कभी वसुदेव ने था कंस-कारागार से
घन-सघन भादों की निशा में
उमड़ती दुर्दात यमुना-पार भेजा
शिशु कन्हैया को बचाकर,
या फलों की पेटिका में
सेवकों ने था निकाला
राष्ट्र के गौरव शिवा को
आगरे के कपट-कारागार से ज्यों।
और बाहर गा रही थी भीड़ तब भी–
“चलो, गांधी को पकड़कर
सामने के पेड़ पर फाँसी चढ़ा दें’।

तब चतुर रक्षाधिकारी ने कहा बाहर निकलकर
“बंधुओ! गांधी कहाँ है इस भवन में!
वह लगाकर पंख नभ में उड़ गया है
घुल गया है वायु में
वह भूमि की गहराइयों में खो गया है
व्यर्थ है फेनिल तुमुल गर्जन तुम्हारा,
यदि न हो विश्वास तो आकर स्वयं कर लो निरीक्षण,

जो अधिक थे धृष्ट,
हर तिनका भवन का छानकर जब
फिर रहे थे हाथ मलते,
सिर झुकाये,
सूर्य तब निज चक्र का
मध्यांश पूरा कर चुका था

जब जगी सरकार,
ऑग्ल-प्रदेश जागा
दोषियों के दंड-हित जब
लोकमत जागा उदार सुधीजनों का,
धीर, अविचल,
मुक्त हिंसा-रोष से, बोले तभी गांधी सरल-मन,
है नहीं कुछ दोष उनका,
कर जिन्हें दिग्भ्रांत, छल से
मारने मुझको यहाँ लाया गया था;
दोष क्‍या उनका कि जिनका शिशु-सरल मन
कर दिया था मलिन भ्रम की आँधियों ने!
वे समझ बैठे कि मैंने झूठ कहकर
विश्व में था किया कलुषित नाम उनका,
और भरना चाहता था अफ्रिका के जनपदों को
अर्थलोलुप, श्याम भारतवासियों से।
किंतु होते हैं कहीं पग झूठ के ! वह
सदा कंधों पर चला है सत्य के ही
और हिंसा तो सतत है आत्मभक्षी,
सर्पिणी-सी,
अंध प्रतिहिंसा अपत्याहार उसका।
इसलिए मैं प्रेम के शीतल सलिल से
द्वेष की ज्वाला बुझाना चाहता हूँ
इस लिये मैं क्रूर प्रतिहंसाभरी इस तम-निशा में
शांति का दीपक जलाना चाहता हूँ
मैं मरूँ सौ बार यदि मेरे मरण से
सत्य और विवेक जागे
चाहता हूँ मैं कि मेरे प्राण का आलोक छूकर
शत्रु भी छल-कपट-हिंसा-रोष त्यागे।

प्रेममयी यह वाणी गूँजी सातों सागर पार थी
गयी सभी के मन को छूती एक अदृश्य पुकार थी
पूर्व और पश्चिम युग तट से बही प्रेम की धार थी
श्याम-गौर के बीच न अब भ्रम की कल्पित दीवार थी