alok vritt
अष्टम सर्ग
थे दिशा-दिशा से उमड़ रहे जन-गण अधीर-
आनेवाला है कौन अनोखा कर्मवीर
कोई कहता–वह तो कोई जादूगर है
अफ्रिका देश से लाया मंत्र भयंकर है?!
कोई कहता–‘वह मनुज नहीं अवतारी है
आया भारत की मुक्ति हेतु नभचारी है’
कोई कहता–‘वह सिद्ध-महात्मा है कोई
जो चला जगाने भारत की आत्मा सोयी’
जितने मुँह, उतनी बात, न कोई सका जान
कब कैसे हुई अलौकिक वह छवि मूर्तिमान
जैसे रवि के उगते ही सरसिज खिल जाता
परिचय क्या, स्वत: प्रमाण शक्ति का मिल जाता
दर्शन के लिये स्वत: वैसे मच गयी होड़
अभिनंदन को भारत का कण-कण पड़ा दौड़
शासन से पाकर शोषण की निर्बाध छूट
निलुहे परदेशी, जनता को थे रहे लूट
नेता न सहायक कोई जो सुनता पुकार
फैला सब ओर निराशा का था अंधकार
अपनी ही धरती अपनी नहीं परायी थी
माँ की पय-धारा शिशु तक पहुँच न पायी थी
जो चाहे सो बोये, किसान को थी न छूट
जब जी करता, साहब लेते खलिहान लूट
वह दाग दासता का, स्वदेश की धरती का
उभरा था बन कर नील भाल पर का टीका
अति घर्षण से हिम से भी उठती चिनगारी
जागा बिहार में एक कृषक दृढ़-व्रत-धारी
वह राजकुमार सुकुल जो लाया गांधी को
गांधी क्या, वह लाया बटोरकर आँधी को
उड़ जाते जिससे कपट-नीति के छल-प्रचार
सह पाती कैसे सत्ता यह सीधा प्रहार
चंपारन से आदेश निष्क्रण का पाकर
बोले बापू उद्विग्न गणों से हास्य-मुखर
‘मुझको स्वदेश से कहें विदेशी जाने को
क्यों मानूँ मैं ऐसे अनुचित परवाने को!
इस सत्ता से भी बड़ी शक्ति है और कहीं
जिसको कोई पहना सकता हथकड़ी नहीं
आदेश उसीका यहाँ मानकर आया मैं
संदेश सभीके लिये प्रेम का लाया मैं
मत करें आप इन निर्देशों का तनिक खेद
आत्मिक बल देगा लोहे की प्राचीर भेद
विश्वास मुझे, मेरे बंदी होने पर भी
लौटेंगे आप कार्य यह पूरा करके ही!
‘घिक्, बिना आपके अकृतकार्य हम लौटें घर’
शब्दों से पहले आँसू से देते उत्तर
सब खड़े हो गये घेर चतुर्दिक गांधी को
जैसे दीपक तक राह न देंगे आँधी को
शंका, दुविधा पर नये प्रेम की स्वीकृति से
आश्वस्त बंधुओं की वास्पाकुल सहमति से
वंदी बन बापू जब दूतों के साथ चले
जन शत-सहस्र विक्षुब्ध मींजते हाथ चले
जड़ता की अंतिम नींद छोड़ जागी सक्षम
वह पराधीन जनता का था विक्षोभ प्रथम
दासत्व-निशा में ज्यों सूर्योदय का झोंका
वह प्रथम झलक थी युग के नये मसीहा की
जिसने आकर यह गाँठ प्रेम की बाँधी थी
तिनकों को भी अब उड़ा न सकती आँधी थी
जय बोल महात्मा गांधी की, भारत की जय
फिर न्यायालय की ओर बढ़े वे सभी अभय
घर-घर में, गाँव-गाँव में, जन-जन के मन में
जय-नाद छा गया वह भारत के कण-कण में
बन गया वही नव मुक्ति-मंत्र-सा जनता का
निर्बल का संबल, धन सच्चा निर्धनता का
लिखने बैठा अधिकारी जब उनका बयान
बोले गांधी,-‘मैं भारत का बुनकर, किसान
हूँ कर्मचंद-सुत, मोहनदास, जाति गांधी
पर नहीं जाति-कुल ने मेरी सीमा बाँधी
‘मैं नंगी-भूखी भारतीय जनता का स्वर
अत्याचारों का शांति-अहिंसामय उत्तर
मैं मंत्र अभय का, न्याय-भावना का प्रतीक
बस यही चाहता सभी सत्य की चलें लीक
शासक या शासित, गोरे हों या काले हों
सब मर्यादा का पालन करनेवाले हों
दारिद्रय-दैन्य-दुख-भय की अंतिम सीमा पर
जो सिसक रहे हैं, मैं उनका प्रतिनिधि बनकर
गोरी सत्ता के लिये चुनौती लाया हूँ
जन-हित जिसमें हो वही बताने आया हूँ
संगीनों से कुचला जायेगा सत्य नहीं
तोपों से कोई उड़ा सका है न्याय कहीं!
पीड़ित जन चाहे रहें शक्ति से विवश, काँप
शोणित के कण होंगे सहस्र-फण साक्ष्य आप
‘बेड़ियाँ पिन्हा सकते हो तुम इन पाँवों में
पर रोक सकोगे वह जो नगरों-गाँवों में
जन-जन के मन में स्वतंत्रता के भावों में
है व्याप्त देश की मिट्टी और हवाओं में!
‘वंदी-गृह से मुझको कैसी उलझन ! क्या भय!
है आज निखिल भारत वंदी-गृह नि:संशय
पैंतीस कोटि जन जिसमें वंदी, विकल, दीन
निरुपाय, निरुद्यम, नि:स्व, निराश्रय, नियतिहीन, ‘
न्यायालय स्तब्ध, न्यायपति किंकर्तव्यमूढ़
भावी अर्थों से गर्भित सुनकर गिरा गूढ़
बोले कि स्थगित है वाद यहीं, हो चुका समय
हम सोच-समझकर अगले दिन देंगे निर्णय
बाहर अपार जन-सागर-सा लेता हिलोर
सदियों से मूक उठे थे ज्यों साहस बटोर
जैसे राका निशि में लहरों के उठा हाथ
अंबुधि करता जयघोष, मुग्ध, पुलकित, सनाथ
वैसे ही शत-सहस्र जन उनन्नत-सिर, निर्भय
चलते थे साथ-साथ गांधी की कहते जय
यह दृश्य देख, सुनकर बापू का सिंहनाद
डोला सिंहासन सत्ता का, टूटा प्रमाद
आदेश हुआ-‘गांधी से लो द्रुत हाथ खींच
है नीति यही, आँधी में लेना आँख मींच’
यों इस न्यायालय के नाटक का हुआ अंत
जन-जन में जागा नयी चेतना का वसंत
अनपढ़ किसान मंडित अभिनव गरिमाओं से
दुख-गाथा कहते आये सभी दिशाओं से
दिन पर दिन बढ़ने लगा शौर्य-साहस, जनबल
भयभीत उधर चिंतित था शोषक निलुहादल
ज्यों असुर देखकर खड़े राम को सिंधु-तीर
आमोद-कुंज में जुटे सभी बेसुध, अधीर
जब हुआ गूँज कर मौन राग तीखी धुन का
मृदु-मंद स्वरों में बोला तब नायक उनका
‘है प्रश्न यही, संकट से कैसे मिले त्राण
व्यापार नहीं तो क्या शासन! कैसा विधान!
वे कहते हमें रक्तशोषक, यदि सत्य यही
अब तक कैसे धन-धान्यपूर्ण है यहाँ मही
ऐसा भी कोई जीव कि जिसका पियो रक्त
फिर भी युग-युग तक रहे सबल, जीवित, सशक्त !
फिर हम आये जो सात समुंदर पार यहाँ
गृह, पुरजन, प्रिय, परिवार, सभी कुछ छोड़ वहाँ
क्या इसी लिये, धो रंग यहाँ का साफ करें!
यह कार्य हमारा नहीं, बंधुओ! माफ करें
दो कौर न क्या मिल सकते टेम्स किनारे थे!
बेउपनिवेश ही पूर्वज जिये हमारे थे
फिर यह गठरी क्यों लाद गया क्लाइव सिर पर
ढोते हैं जिसे निरंतर हम यों मर-मरकर ?
जिसकी रक्षा को रचते हैं ये ठाठ-बाट
रेलों, ट्रामों, सड़कों से धरती रहे पाट?
क्या यह गांधी उसको उतारने आया है?
इस संकट से हमको उबारने आया है?
यह न्याय! कि हम ढोते ही जायें बोझ भला
कुछ दाना-घास न चुगें, फँसाये रहें गला!
बंधुओ, इसीमें सबकी आज भलाई है
रण-नीति यही युग-युग से गयी सिखायी है
चूके तो वही अफ्रिकावाली माया है
दो मिटा उसे जो हमें मिटाने आया है!’
छा गया रोष, आयुध कोषों में फड़क उठे
श्यामल घनमाला में बिजली ज्यों कड़क उठे
“इस नई क्रांति को रोक सके, पर युक्ति कौन?!
सब एक दूसरे का मुँह तकते, रहे मौन
तब एक युवक ने उठकर कुछ हिम्मत बाँधी
बोला-‘बिहार में रह न सकेगा अब गांधी
यह दाग नील का वह न कभी धो पायेगा
मैं प्रण करता हूँ, शत्रु न बच कर जायेगा!
यों हिंसा का व्रत ठान गया वह छली, जिधर
रहते थे गांधी सहयोगी-जन से घिरकर
सोचा शस्त्रों से निकलेगा कुछ काम नहीं
बल के प्रयोग का होगा शुभ परिणाम नहीं
बल के पौधे को छल से सींचा जाता है
काँटे को काँटे से ही खींचा जाता है
बोला उनसे-‘मैं न्याय-नीति का भक्त सदा
हूँ, अतिथि! आपकी ऋजुता पर अनुरक्त सदा
क्षण-क्षण स्वबंधुओं के विरोध की शंका में
रहता हूँ विकल विभीषण जैसा लंका में
पर सहाय नहीं अब और कि भय से रहूँ मौन
कह दूँगा सच-सच-‘दोषी हममें, कहाँ, कौन!’
मिलने का दें कुछ समय, नहीं यदि हो अकाज
निशि का भोजन मेरे ही घर पर करें आज!
जो सहज अजात-शत्रु, निज-पर से उदासीन
छू भी न गयी थी जिनका मन छल-छाँह क्षीण
बापू ने झट आमंत्रण कर स्वीकार लिया
कर ज्यों हँसकर विषधर के बिल में डाल दिया
उठकर आये फिर जहाँ बंधु थे कार्य-लीन
जैसे अगाध जल में तिरते हों सहज मीन
नित सरल युधिष्ठिर के शकुनी से वंचन की
जो लिखते थे दुख-कथा प्रजा के शोषण की
मदमत्त बने कैसे सब नीति-अनीति भूल
थे खींच रहे गोरे, भारत-माँ का दुकूल
लिखना था वह क्या सहज! व्यास जैसे अनेक
लिखते थे नये महाभारत का पर्व एक
आयी रजनी फैलाये तम-कुंतल प्रगाढ़
चुप देख रहे थे तारे आँखें फाड़-फाड़
गृह-विपिन एक से सभी, न दिखता मार्ग, कहाँ
प्रेतों से तरु थे धनखेतों में जहाँ-तहाँ
कोई निर्भय एकाकी फिर भी बढ़ता था
पौरुष ज्यों अपने लिये नया पथ गढ़ता था
उस ओर कक्ष में विष से पूरित थाल सजा
गोरे दंपति बैठे थे पथ पर कान लगा
थपकी कपाट पर सुनी कि अंतस की पुकार
टकरायी प्राणों से आ-आकर बारबार
पति तो बैठा ही रहा, अकल्पित भय से भर
पत्नी ने साहस किया, द्वार खोले आकर
देखा जो अद्भुत दृश्य सामने, पड़ी चीख
थे स्वयं खड़े ईसा देने के लिये सीख
वह भाव नयन का स्नेहपूर्ण, वह सहज हास,
वह ज्योति अलौकिक, दिव्य चेतना का प्रकाश
वह करुणा, वह निर्वैर कांति, वह शांत दृष्टि
थी भिगो रही आपादशीष वह क्षमावृष्टि
चीत्कार हुआ ज्यों सहसा डूब रहे जन का
दौड़ा पति सुन कर शब्द प्रिया के क्रंदन का
देखा कि साश्रु वह अतिथि-पदों में पड़ी हुई
सिसकियाँ विकल भरती थी भू में गड़ी हुई
देखा गाँधी की ओर, भीत फिर अपने को
जग देखे ज्यों कोई डरावने सपने को
धिक्, एक स्वार्थ के लिये गरल मैं जुटा रहा
जन एक उधर जीवन पर-हित में लुटा रहा’
रण था तम से रविकर का, जड़ से चेतन का
विँध राम-बाण से गया हृदय ज्यों रावण का
बह गया विरोधी भाव, काल्पनिक श्याम-स्वेत
जैसे लहरों में ढहता सिकता का निकेत
जो छली, क्रूर, पहले प्राणों का ग्राहक था
अब वही प्रेम का सेतु, शांति का वाहक था
सुनकर अपने प्रति बनी मृत्यु-रचना समस्त
बापू ने हँसकर बढ़ा दिया निज वरद हस्त
मैत्री का बना प्रतीक बढ़ रहा वही हाथ
वह छत्र कि जिसमें सिमटा भारत एक साथ
वह सेतु बन गया सप्त सिंधुओं का अशेष
जिस पर चढ़कर लौटे निलुहे सारे स्वदेश
जैसे कलंक से मुक्त गगन में इंदु हँसे
धुल गया नील का दाग देश के मस्तक से