anbindhe moti

अंचल लहरा चलती वह चंचल चरणोंवाली

तीर्यक-मुख, चंचला, सकौतुक
बीच-बीच में उझक, झाँक, झुक
निज छवि आप निरखती रुक-रुक
हँस-हँस बिखरा देती पथ पर फूलों की डाली

मुखड़े पर लावण्य, लुनाई
अंग-अंग लेते अँगड़ाई
आँखों में मस्ती-सी छाई
अपने ही यौवन के मद में उन्मद, मतवाली

ओपभरी बिजली-सी क्षण में
चमक निमेष-विहीन नयन में
छिपती नभ के वातायन में
और अधिक गहरी कर मेरे मन की अँधियाली
अंचल लहरा चलती वह चंचल चरणोंवाली

1940

‘कमला’ पत्रिका में एक सहपाठिनी के लिए प्रकाशित। देखें मेरी आत्मकथा “जिन्दगी है, कोई किताब नहीं’ पृ. सं. 99-101