anbindhe moti
कोकिले ! तेरे गीत अजान
तूने तो मस्ती में गाया
गा-गाकर मधुपर्व मनाया
पर मेरा अंतर भर आया, देख, अरी नादान !
यह भावुकता है या भ्रम है
प्रेम है कि साधना चरम है
जिसे नहीं जाना-पहिचाना, उस पर देते जान
सुप्त विपिन में भर मधुमय स्वर
जग, जीवन से ऊपर उठकर
किस सौदर्य-जगत का, करती, संगिनि ! तू निर्माण
तेरे गीतों में खो जाऊँ
गाती रह, सखि ! मैं सो जाऊँ
पल्लव से पलकों तक तन जाये माधुर्य-वितान
कोकिले ! तेरे गीत अजान
1940