हूँ शरबिधा आखेट मैं
उठकर अचानक काँपता
दूरी क्षितिज की नापता
रुकता कभी फिर हाँफता
जाता धरा पर लेट मैं
धरता अहेरी दौड़कर
बढ़ती विकलता तीव्रतर
लाया लिखा जो भाल पर
पाता न उसको मेट मैं
मेरे करुण बलिदान की
उसको झलक भी मिल सकी
यह चेतना हारी-थकी
करता जिसे हूँ भेंट मैं
हूँ शरबिंधा आखेट मैं
1962