antah salila
साज नहीं सजता है
जब तक उसे बजानेवाला आप नहीं बजता है
ज्यों न भिन्न स्रष्टा संसृति से
मैं अभिन्न हूँ अपनी कृति से
मेरे ही प्राणों की गति से
मुखर हुई रजता है
मेरे क्षीण स्वरों पर रह-रह
किन्तु किसी का हुआ अनुग्रह
यद्यपि यश का लोभी मन यह
निज को ही भजता है
मैंने जग की चिंता खोयी
पर ये तार छुए जब कोई
जाग उठे मेरी धुन सोयी
मोह न यह तजता है
साज नहीं सजता है
जब तक उसे बजानेवाला आप नहीं बजता है