antah salila

गुलिवर की चौथी यात्रा

कागज़ की नौका पर चढ़कर, कवि के मोहक वेश में
गुलिवर फिर से आ पहुँचा था लिलिपुटियों के देश में

सजे विविध परिधानों में, नन्हे मुख में तांबूल भर
दिखे अँगूठे-से लघु मानव उसे रेंगते भूमि पर
होता था कठपुतली का-सा नृत्य, कभी चढ़ मंच पर
जब वे कविता पढ़ने लगते थे आपस में होड़ कर
भाँति- भाँति की मुद्राएँ कर, भाँति-भाँति के भेस में

कुछ उनमें तसला लेकर थे नृप-परिसर में घूमते
कुछ पीकर थे धुत्त, पिनकची कुछ भू को झुक चूमते
सुर में या बेसुरे, प्रशंसा आपस में करते हुए
सभी परस्पर एक-दूसरे को सुन-सुनकर झूमते
कुछ लम्बी दाढ़ी में दिखते थे कुछ लम्बे केश में

कुछ थे फटेहाल मसिजीवी, गद्दीधारी थे कई
तिकड़म दलबंदी के बल औरों पर भारी थे कई
बजते ढोल जहाँ तूती के सुर को सुनता कौन है
रत्न-विभूषण जिनको पाने के अधिकारी थे कई
हटा उन्हें कुछ चतुर झपट लेते थे एक निमेष में

मानव एक देख पर्वत-सा, अचरज में थे वे सभी
भले अकड़ ले, कोई उसके निकट न जाता था कभी
यद्यपि डरते थे लिलिपुटिये, पीस न दे यह गिरि हमें
थे कुछ उनमें कमर बाँधकर लड़ने को तैयार भी
पर लड़-भिड़ सबने गुलिवर को मान लिया गुरु शेष में

कागज़ की नौका पर चढ़कर, कवि के मोहक वेश में
गुलिवर फिर से आ पहुँचा था लिलिपुटियों के देश में

Sep 2010