bhakti ganga
अपेक्षा जग से क्या करता है!
ओस चाटता, मन तू! गंगाजल पीते डरता है
नभ से बरस रहे मुक्ताकण
तेरे लिए अमरता के धन
क्यों कंकर-पत्थर से क्षण क्षण
तू झोली भरता है!
जिधर सुधा-सागर लहराता
क्यों उस ओर न दृष्टि फिराता!
मृगजल देख दौड़ता जाता
तृष्णा में मरता है
होना है बस उसके आगे
देता जो सब कुछ बेमाँगे
पत्र, फूल, फल, छोड़, अभागे!
मूल न क्यों धरता है!
अपेक्षा जग से क्या करता है!
ओस चाटता, मन तू! गंगाजल पीते डरता है