bhakti ganga
बिगड़ी बात बनाते हो तुम
जहाँ चरण डिगते हैं मेरे, हाथ पकड़ ले जाते हो तुम
यद्यपि सम्मुख कभी न मेरे नाम-रूप में आते हो तुम
पर लगता कंधों के पीछे सदा खड़े मुस्काते हो तुम
बाती, स्नेह, प्रदीप तुम्हीं हो, जलते और जलाते हो तुम
उजियाले का श्रेय दिला कर मेरा मान बढ़ाते हो तुम
मेरी साँसो की धड़कन में अपनी साँस मिलाते हो तुम
मैं वैसे ही नाच रहा हूँ जैसा नाच नचाते हो तुम
लो मेरा ‘मैं’ भी यह ले लो जिससे यों भरमाते हो तुम
अब किसका देना! क्या लेना! तुम देते हो, पाते हो तुम
बिगड़ी बात बनाते हो तुम
जहाँ चरण डिगते हैं मेरे, हाथ पकड़ ले जाते हो तुम