bhakti ganga
मन का यह विश्वास न डोले
‘जाऊँगा मैं जग से अपने तप की पूँजी को ले’
जो जीवन-प्रसून का रस है
नित-नित, नव-नव रहा विकस है
नहीं काल का उस पर वश है
कितना भी विष घोले
दल, पँखुरियाँ छोड़ भी दूँगा
सुरभि सदा उसकी रख लूँगा
फिर-फिर तेरी ओर बढूँगा
अंतर के पट खोले
पूरी होते ही यह फेरी
चमकूँगा परिषद् में तेरी
शून्य न होगी सत्ता मेरी
कोई कुछ भी बोले
मन का यह विश्वास न डोले
‘जाऊँगा मैं जग से अपने तप की पूँजी को ले’