bhakti ganga
मन का ताप हरो
लेकर मुझे शरण में अपनी, भय से मुक्त करो
तृण-सा मैं उड़ रहा भुवन में
कभी धरा पर, कभी गगन में
चिर-शंकाकुल इस जीवन में
श्रद्धा-ज्योति भरो
ज्यों तुलसी का मानस पढ़कर
तुमने लिखा ‘सत्य, शिव, सुन्दर’
वैसे ही मे री रचना पर
अपनी मुहर धरो
मन का ताप हरो
लेकर मुझे शरण में अपनी, भय से मुक्त करो