bhakti ganga

कितनी भूलें नाथ गिनाऊँ!

पाहन की नौका लेकर मैं सिन्धु लाँघने निकला
पावक की लपटों से लड़ने चला मोम का पुतला
इन्द्रधनुष की डोर धरे चाहा नभ पर चढ़ जाऊँ

पारस कर में लिए कौड़ियों के हित दर-दर भटका
जल की बूँद-बूँद को तरसा पंछी गंगा-तट का
हर दम उलटे पाँवों चलकर चाहा तुझ तक आऊँ

कितनी भूलें नाथ गिनाऊँ!