bhakti ganga
कृपा का कैसे मोल चुकाऊँ!
मस्तक काट चढ़ा दूँ फिर भी उऋण नहीं हो पाऊँ
तूने तो अगजग से चुन कर
दिया मुझे मानव-तन सुन्दर
हाथों में वीणा दी, जिस पर
नित नव सुर में गाऊँ
पर मैं अपने मन से हारा
भर न सका श्रावण-घन-धारा
दोष किसे, रिसते घट द्वारा
यदि रीता रह जाऊँ !
ज्यों-ज्यों आती घड़ी मिलन की
चिंता बढ़ती जाती मन की
सुध न रही कुछ भी निज प्रण की
क्या मुँह तुझे दिखाऊँ!
कृपा का कैसे मोल चुकाऊँ!
मस्तक काट चढ़ा दूँ फिर भी उऋण नहीं हो पाऊँ