bhavon ka rajkumar
अकेलेपन का सफ़र
लो उतर गयी हलदी के रँग की साँझ एक
लो फूल जवा का एक और झर गया आज
मैं फटी-फटी आँखों से बेसुध देख रहा
यौवन का सपना एक और मर गया आज
मैं लौट रहा हूँ हारे हुए जुआरी-सा
आँखों में नहीं चमक, आनन पर तेज़ नहीं
तलवों में काँटे ही काँटे हैं चुभे हुए
जीवन जिसको कहते, फूलों की सेज नहीं
मेरी आँखों में किसी विरहिनी की आँखें
मेरे ओंठों पर टीस किसी घायल की है
जो पड़ी सिसकती भू पर, प्रिय-पद से बिछुड़ी
मेरे प्राणों में व्यथा उसी पायल की है
मेरा जी, जाने, भरा-भरा क्यों आता है!
जैसे कोई बालक खोया हो मेले में
मैं बीत चुकी घड़ियों की स्मृति में दीन, विकल
रोता रहता हूँ गुमसुम बैठ अकेले में
यह तट था जिसपर मोती चुगते हंसों का
अविराम लगा ही रहता था जमघट जैसे
अब धू-धू करती धूल चिता की उड़ती है
वह छवि का पनघट आज बना मरघट जैसे
सब संगी साथी एक-एक कर छूट रहे
मुझको भी अब कोई उस पार बुलाता है
मैं बाँध रहा जीवन को कस-कसकर लेकिन
बंधन प्रतिपल ढीला ही होता जाता है
वे कहाँ गये जो इन भवनों में रहते थे
अब भी जिनके पदचाप सुनाई पड़ते हैं?
हो चुका सभा का अंत, गये गानेवाले
फिर भी मुझको आलाप सुनाई पढ़ते हैं
ये भीतें, निष्ठुर, मौन खड़ीं जो प्रश्नों-सी
ये द्वार, रहस्यों में लिपटे जो चिर-दिन से
लगता है ज्यों हँसते-से बाहर आयेंगे
वे गौर-वर्ण, तेजस्वी देवपुरुष इनसे
वह मस्त मंडली संभवतः हो जुड़ी वहाँ
वे अट्टहास वे गीत, कथाएँ, व्यंग्य-बोध
मैं उड़ गवाक्ष से नील गगन के एक बार
बस एक बार ही उस तट की पा सकूँ शोध।
कैसी-कैसी मूर्तियाँ यहाँ पर आती हैं!
रचनेवाला भी कितने रूप रचाता है!
फिर झपट बाज-सा पर उनको पल भर में ही
जाने अनंत में कहाँ उड़ा ले जाता है।
‘हिम-शीत निशा का अंधकार बढ़ता जाता
मैं महाशून्य में तैर रहा दिगभ्रांत हुआ
भू, नभ, रवि, शशि, ग्रह, तारक पीछे छूट रहे
गत देश-काल, अस्तित्व धधककर शांत हुआ
फिर भी मेरा हृतपिण्ड धड़कता है अब तक
वे कहाँ गये जो लिये हाथ में हाथ रहे!
प्रतिध्वनियाँ आतीं लौट, कहीं कोई न यहाँ
संगी-साथी सब घड़ी, पहर, दिन साथ रहे
घाटियाँ अधिक सँकरी ही होती जाती हैं
जो दौड़ रहे थे, रेंग-रेंगकर चलते हैं
अब ठोस अँधेरे में बढ़ रहे चरण मेरे
मुझको अपने ही प्राण अपरिचित लगते हैं
1968