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तीसरा दृश्य
(दीवान और सुरेन्द्र सिंह का प्रवेश)

सुरेन्द्र सिंह – ओह, लड़की के भाग्य फूट गये। जँवाई क्या है, तूफान मेल है।
दीवान – अजी तो अपनी शारदा भी तो बिजली है बिजली।
सुरेन्द्र सिंह – चुप रहो! महेश सिंह तो लिखते थे कि मेरा लड़का बड़ा सीधा और संकोची है। मुँह खोलकर पानी का मिलास भी नहीं माँग सकता! जरा पत्र तो लाइए।

(दीवानजी पत्र लाकर देते हैं। सुरेन्द्र सिंह पढ़ते हैं)

(पत्र पढ़ते हुए) स्वस्ति श्री सर्व उपमा योग्य समधी सुरेन्द्र सिंहजी से महेश सिंह का जैगोपाल। आगे हमारे बबुआ शिरीष कुमार आपकी लड़की की विदाई कराने के लिये मंगलवार की शाम को तूफान मेल से पहुँचेंगे। अपने दीवानजी को स्टेशन पर जरूर भेज देंगे। हमारे बबुआ बहुत सीधे और संकोची स्वभाव के हैं। उन्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं हो।

सुरेन्द्र सिंह – (टहलते हुए व्यंग्य से) तकलीफ नहीं हो! बहुत संकोची स्वभाव के हैं! सीधे तो इतने हैं जितना शहतीर! अभी बबुआ ने यह नहीं कहा, ‘जरा अपनी लड़की को बुलाकर नचा दीजिये / ‘मुर्ग मुसल्लम के साथ व्हिस्की भी रहे ।” वाह रे सिधाई, वाह रे संकोच! (जोर से) दीवानजी, मैं इस बदतमीजी के पुतले को एक मिनट भी अपने घर में नहीं टिकने देना चाहता। लड़की तो गयी ही, इज्जत भी जाना चाहती है। शीघ्र ही विदाई कर देनी है।

(सुरेन्द्र सिंह जाते हैं)
(सहसा शारदा का प्रवेश)
दीवानजी, मैं अपनी सहेली छाया से मिलने पड़ोस में जा रही हूँ। आज उसके यहाँ भी कोई मेहमान आनेवाले हैं। पिताजी से कह दीजिएगा।

(रमेश का प्रवेश)
रमेश – जीजी! मैं भी साथ चलूँगा।
शारदा – तू क्यास करेगा?
रमेश – मुझे छाया बहुत अच्छी लगती है।
शारदा – सुन ली, दीवानजी! इसकी बात? एक दिन कहेगा “मैं छाया से विवाह करना चाहता हूँ
(नेपथ्य से सुरेन्द्र सिंह की आवाज–दीवानजी”, ‘दीवानजी”)
दीवान – जी आया (जाता है)।
रमेश – कहूँगा क्या, यह तो तय ही है। यदि मेरा विवाह किसी के साथ होगा तो छाया के साथ, नहीं तो…
शारदा – नहीं तो क्या?
रमेश – मैं पोटेसियम साइनाइड खा लूँगा या किसी रेल की पटरी पर सो जाऊँगा।
शारदा – लेकिन छाया की भी तो अपनी पंसद है। वह तुझ जैसी मोटी बुद्धि और भोंदी शक्ल वाले से विवाह क्यों करने लगी?
रमेश – चल, चल, तुझसे तो मैं कहीं ज्यादा सुन्दर हूँ।
शारदा – तभी उस दिन छाया कह रही थी कि तेरा भैया… –
रमेश – क्या कह रही थी? क्या? क्या.?
(शारदा चुप रहती है)
रमेश – मेरी अच्छी दीदी! बता दो न, क्या कहती थी!
शारदा – कह रही थी कि रमेश…
(सहसा नेपथ्य में सुरेश का गाने का क्रमशः निकट आता
हुआ स्वर)
मेरे दिल की कोठरिया में टू-लेट का बोर्ड,
गोरी, जल्दी से ताला लगा दे ….

शारदा – अरे बाप रे! वे आ गये। (जाती है)
रमेश – दीदी! दीदी! छाया ने क्या कहा मुझे बताती जाओ न!
(सामने से सुरेश का प्रवेश)
सुरेश – अरे क्या पूछते हो? मैं बताऊँ।
रमेश – मैं पूछ रहा था कि छाया ने मेरे बारे में दीदी से क्या कहा? यह छाया कौन है?
रमेश – ओह! यह तो मैंने बताया ही नहीं । छाया मेरी दीदी की सहेली है। बगल के मकान में जो ठाकुर साहब रहते हैं न, उन्हींकी लड़की है। बड़ी सुन्दर, बड़ी शोख, बड़ी चंचल, क्या बताऊँ? उसके आगे हेमा मालिनी भी मात है, मैं उससे … (चुप हो जाता है)।
सुरेश – ओ हो! यह बात है। अभी से ? अच्छा छोटे मजनू साहब! आपकी उम्र क्या है?
रमेश – अजी, अबकी फरवरी में सोलह साल पूरे होंगे।
सुरेश – और छाया देवी की उम्र क्या है?

(दीवानजी का प्रवेश)

दीवान – मैं बताऊँ कुँवर साहब? वह कम-से-कम बीस वर्ष की होगी, बी. ए. सेकंड इयर में पढ़ती है।
सुरेश – अजी दीवानजी ! बात यह है कि अपने रमेश बाबू उससे ब्याह किया चाहते हैं। आपका क्या विचार है?
दीवान – हैं, हैँ, मेरा क्या विचार हो सकता है? यों तो कहा गया है “बड़ी बहू, बड़ा भाग” लेकिन रमेश बबुआ तो अभी मैट्रिक की चौखट के भी पार नहीं हुए हैं जब कि छाया देवी रोज कॉलेज जाती है। अंग्रेजी में फर-फर बात करती है।
सुरेश – (हँसते हुए) वाह! खूब! प्रेम हो तो ऐसा! बीबी घर में आते ही पतिदेव को ट्यूशन भी पढ़ा दिया करेगी। ठीक तो है। ठाकुर साहब से कहकर दोनों का विवाह करा दीजिए न।
दीवान – उससे तो नहीं, हाँ, उसकी छोटी बहन कामिनी से रमेश बाबू की जोड़ी अवश्य अच्छी रहेगी।
रमेश – (तिनक कर) उँह, उस चुहिया से कौन विवाह करेगा! उसके चेहरे पर तो सेक्स अपील ही नहीं है। मुझे तो बीबी के साथ फिल्मँ में जाना है। बिना सेक्स अपील के वहाँ कौन पूछता है!

(सुरेन्द्र सिंह का प्रवेश)
सुरेंद्र सिंह – (रमेश की आखिरी बात सुनकर) फिर वही सिनेमा और फिल्म। इस सिनेमा ने तो मेरे घर में आफत मचा रक्खी है। मेरा बस चले तो कहानी-किस्सों की तमाम पत्रिकाएँ बन्द करा दूँ, तमाम सिनेमा-घरों में ताले लगवा दूँ।
रमेश – (धीरे से) और सब देखनेवालों की आँखें फुड़वा दूँ, यह भी जोड़ दीजिए।
सुरेश – अजी, सिनेमा और पत्र-पत्रिकाओं को बन्द करने से क्या होगा? आज कल तो पार्क में, ट्राम में, सभा सुसाइटियों में सुन्दर साड़ियों में लिपटी नारियों का ही जमघट दिखाई पड़ता है। मैं तो कहता हूँ लोग टहलने भी इसी लिए जाते हैं, प्रदर्शनियाँ भी इसी लिए होती हैं, होटल इसी लिए चल रहे हैं। यदि स्त्रियाँ न जायूँ तो इन स्थानों पर एक भी पुरुष न दिखाई पड़े। बस मक्खियाँ-ही-मक्खियाँ भनभनाती हुई मिलें। अपने रमेश बाबू का ब्याह छाया देवी से कर देने में मुझे तो कोई आपत्ति नहीं दिखाई देती। बीबी के साथ इन्हें एक बराबर सँभाल रखनेवाला अभिभावक भी मिल जायगा। खैर, जाने दीजिए इन बातों को। भोजन में क्या देरदार है? मारे भूख के पेट में चूहों का हाई जम्प हो रहा है। जा बेटा, रमेश, जल्दी से मेहमान को भोजन करा।
(रमेश और सुरेश जाते हैं)

सुरेंद्र सिंह – दीवानजी!
दीवान – जी…
सुरेंद्र सिंह – पढ़ा था आपने जो बाबू महेश सिंह ने अपने-सपूत के बारे में लिखा था?
दीवान – जी…
सुरेंद्र सिंह – मेरा लड़का बहुत संकोची है।
दीवान – और सीधा है।
सुरेंद्र सिंह – दीवानजी!
दीवान – जी?
सुरेंद्र सिंह – आपने लड़के को देखा?
दीवान – जी।
सुरेंद्र सिंह – संकोच और सीधापन इसीको कहते हैं?
दीवान – जी, हाँ!
सुरेंद्र सिंह – (डाटकर) दीवानजी!
दीवान – (समझकर) जी नहीं, सरकार!
सुरेंद्र सिंह – इसे क्यार कहते हैं?
दीवान – जी?
सुरेंद्र सिंह – शोहदापन।
दीवान – जी, शोहदापन।
सुरेंद्र सिंह – और बेहूदापन।
दीवान – जी, बेहूदापन।
सुरेंद्र सिंह – और आवारापन।
दीवान – जी, आवारापन।
सुरेंद्र सिंह – (जोर से) दीवानजी!
दीवान – जी?
सुरेंद्र सिंह – आपने कभी कविता लिखी है?
दीवान – जी, जी, जब मैं अठारह-उन्नीस वर्ष का था तो पड़ोस की एक लड़की को देखकर हें, हें, हें, हैं,
सुरेंद्र सिंह – मुझे आपकी जीवनी नहीं सुननी है।
दीवान – (चौंककर) जी?
सुरेंद्र सिंह – आपं मुझे कोई दूसरा ज्यादा जोरदार और मजबूत शब्द ढूँढ़कर दे सकते हैं, जिसमें बेहूदापन के सभी भाव आ जाये, साथ ही जंगलीपन, जाहिलपन और दुष्टता के भावों का भी पुट रहे? यदि ऐसा शब्द महेश सिंह को उनके लड़के के बारे में लिखकर भेज सकता तो मुझे कितनी प्रसन्नता होती!

(रमेश के साथ सुरेश का प्रवेश)
रमेश – (अपनी धुन में सुरेश से) तब क्या हुआ? फिर वह लड़की कॉलेज छोड़कर कहाँ गयी? आप भी ख़ूब हैं!
सुरेन्द्र सिंह – (सुरेश से) कहिये भोजन आपको पसन्द आया?
सुरेश – पसन्द? अजी साहब मैं तो पूरी डेढ़ दर्जन पूड़ियाँ और सत्ताइस कचौड़ियाँ गिनकर खा गया। जब मुझे रमेश ने बताया कि यह सब उसकी दीदी ने बनाया है तो मैं अवाक्‌ रह गया। सचमुच आपकी लड़की कमाल का भोजन बनाती है। पढ़ी कहाँ तक है?
(सुरेन्द्र सिंह भौंचक रह जाते हैं और क्रोध से ओठ दाबते हैं। दीवानजी आगे बढ़कर बोलते हैं।)

दीवान – जी, शारदा बिटिया अभी बी. ए. सेकंड इयर में पढ़ती है।
सुरेश – (आश्चर्य से) सेकंड इयर?
दीवान – जी हाँ, और बुनाई, सिलाई तथा संगीत में बड़ी निपुण है।
सुरेश – अच्छा, संगीत भी- सीखती है? यानी नाचना-गाना, वगैरह-वगैरह।

(सुरेन्द्र सिंह क्रोंध से काँपने लगते हैं।)
सुरेंद्र सिंह – मैं सोने जा रहा हूँ! बबुआ के सोने आदि का इन्तजाम कर देंगे।
(जाते हैं)
सुरेश – (दीवानजी से) आपने बॉल डांस देखा है?
रमेश – मैंने नहीं देखा, मुझे दिखाइए।
सुरेश – आइए दीवानजी आपके साथ बॉल डांस करूँ।
(सुरेश दीवान जी के साथ कमर में हाथ देकर नाचता है और गाता है।)
“बाजूबन्द टूटि-टूटि जाय॥
(सहसा शारदा के कमरे से हँसी की आवाज आती है।)

रमेश – चलिए हम लोग बगल के कमरे में चलें, यहाँ दीदी आ रही है।
(रमेश और सुरेश जाते हैं, केवल दीवानजी रह जाते हैं।)
(शारदा और छाया का प्रवेश)

शारदा – (दीवानजी से) दीवानजी, पिताजी कहाँ हैं?
दीवान – वे तो सोने चले गये।
शारदा – इतने सबेरे? अभी तो साढ़े आठ भी नहीं बजे।
दीवान – अरी बिटिया! मेहमान तो बस मेहमान ही हैं। कभी तेरी तारीफ के पुल बाँघते हैं, कभी मुझे साथ लेकर नाचते हैं, जैसे ससुराल न होकर यह उनका क्लबघर हो।
शारदा – क्या कहा? मेरी तारीफ के पुल बाँधते हैं? नाचते हैं?
दीवान – हाँ, यही तो बात है। अपने बाबूजी को तो जानती ही हो, पुराने किस्म के आदमी हैं, रूठकर चले गये।
छाया – नाचते हैं! अच्छा मणिपुरी या कत्थाकली?
दीवान – अरे बाबा, यह सब मैं क्या जानने लगा? मेरी कमर में हाथ डालकर ऐसे नाचने लगे। (नाचने का अभिनय करता है) मेरी कमर और टाँगें, सब दर्द कर रही हैं।
छाया – यह तो बड़ी अच्छी बात है। मैं समझ गयी, यह बॉल डांस था। शारदा बड़ी ख़ुशकिस्मत है। अरे दीवानजी! आप सोने नहीं गये ? जाइए, जाइए, देर तक जगने से स्वास्थ्य बिगड़ जाता है।
(दीवानजी जाते हैं)

छाया – हाँ, तो शारदा, अब तो खूब बॉल डांस करेगी, अच्छा उन्हें कौन-कौन-सा डांस आता है, पूछना तो।
शारदा – नाच के नाम से ही लट्टू हो रही है, कह तो उन्हें दस-पाँच दिन के लिये तेरे ही पास छोड़ दूँ।
छाया – किस मन से?
शारदा – इसी मन से। तू कहकर तो देख!
छाया – (शरमाती-सी, शोख चंचलता से) छोड़ दे।
शारदा – (अदा से) छोड़ दिया।
छाया – कब तक के लिए।
शारदा – एक हप्ता, एक महीना, एक वर्ष, जब तक तू चाहे। चाहे तो जीवन भर के लिए रख ले।
छाया – और तू बैठी सरापा करे, क्यों ?
शारदा – सरापे मेरी बला, मैं तो बी. ए. करूँगी, एम. ए. करूँगी, डाक्टरेट करूँगी, फिर किसी वीमेंस कालेज की प्रिंसिपल बन कर शान से जीवन बिताऊँगी। और तू हर साल एक बच्चा पैदा करती हुए शीघ्र ही बुढ़िया हो जायगी। दिन भर चूल्हा-चक्की, बच्चे, पतिदेव और उनके आवारा दोस्तों से जब तेरी नाक में दम आ जायगा, तब मेरी याद आयेगी।
छाया – तेरी कल्पना तो हाथरस के चाकू से भी तेज है।
(सहसा बाहर से सुरेश का प्रवेश)

(शारदा भागना चाहती है, छाया पकड़ लेती है। वह छाया की ओट में हो जाती है। सुरेश लौटकर जाना चाहता है।)

छाया – अजी, ठहरिए तो, यह भी क्या आना! याद बनकर आये और आँसू बनकर चल दिये। एक साथ दो को देखकर डर लगता है क्या?
(सुरेश रुक जाता है)

छाया – देखिए मुझे बॉल डांस से बहुत प्रेम है, जरा दिखा दीजिए न!
सुरेश – (चौंककर) बॉल डांस?
छाया – जी हाँ, अभी-अभी जो दीवानजी के साथ हो रहा था?
सुरेश – (झेंप कर) ओह, वह तो मजाक था।
छाया – तो वही मजाक फिर से कीजिए न, जरा हम भी देखें। आप तो बनाने लगीं।
छाया – मैं? और आपको बनाऊँ? ऐसा भी कभी हो सकता है?
सुरेश – यही तो बात है। यों तो सुबह से शाम तक हमारा काम ही लोगों की हजामत बनाने का है, पर यहाँ आप लोगों के आगे मुँह ही नहीं खुलता।
छाया – अच्छा तो आप नाई का भी काम करते हैं? (चुप देखकर) जवाब दीजिए।
सुरेश – क्या कहूँ? मुझे तो कोई उत्तर ही नहीं सूझता।
छाया – चश्मा लगाकर देखिये, शायद कुछ सूझ जाय।
सुरेश – आहा! सूझ गया।
छाया – क्या?
सुरेश – आप बहुत सुन्दर हैं।
छाया – क्यों नहीं! क्यों नहीं! कुछ और?
सुरेश – आप बहुत सुकुमार हैं।
छाया – (चिढ़ाती हुई) हें, हें, और ?
सुरेश – आप बहुत दयालु स्वभाव की हैं।
छाया – इसमें क्या संदेह है! और?
सुरेश – आप हँसती हैं तो बिजली चमकती है।
छाया – और रोती हैं तो बादल बरसते हैं। और बताइए?
सुरेश – और, और, आपके बाल रेल की लाइन जैसे लंबे और चमकीले हैं। नाक घड़ी की सुई जैसी है, आँखे क्या है दो फाइटर जहाज हैं, ओठ टमाटर जैसे हैं और आवाज पियानो को शरमाती है।
छाया – ख़ूब, ख़ूब, मुझमें आपको इतना कुछ दिख गया, इसके लिये बहुत-बहुत धन्यवाद। क्या इन सबके अतिरिक्त आपको और कुछ नहीं दिखाई देता?
सुरेश – अभी तो कुछ नहीं दिखाई देता। दिखने पर बताऊँगा।
छाया – (अपनी आड़ में खड़ी शारदा को दिखाते हुए) इन्हें आप नहीं देख रहे हैं?
सुरेश – आप पारदर्शी तो हैं नहीं, न मेरी आँखों में रेडियम ही लगा है।
छाया – रेडियम मत हो रेडियो तो है, ज्योंही घर में पाँव रक्खा, ब्राडकास्ट होना शुरू हो गया।
सुरेश – क्या?
छाया – यही कि आप कितने पुरमजाक हैं, नाचना जानते हैं, गाना जानते हैं।
सुरेश – बस, बस ज्यादा प्रशंसा न करें, लड़कियों के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनकर मुझे मिर्गी का दौरा शुरू हो जाता है। एक बार कॉलेज में कुछ लड़कियाँ जो मेरे आगे जा रही थीं, लगीं मेरी तारीफ करने। उनके मुँह से अपना नाम सुनकर मैं वही बेहोश होकर गिर पड़ा। फिर तो कुछ न पूछिए, कोई दौड़कर पानी ला रही है, कोई अपने आँचल से हवा कर रही है, कोई चप्पलें सुँघा रही है। आप यही समझिए पूरे सात घंटे के बाद होश आया।
छाया – घबराइए नहीं, मैं ऐसी दवा जानती हूँ कि … (सहसा सुरेश की मुखाकृति बिगड़ने लगती है और वह बेहोश होकर गिर पड़ता है। शारदा दौड़कर उसका सिर अपनी गोद में ले लेती है। छाया आँचल से हवा करती है और पास की सुराही में से पानी लेकर उसके मुँह पर पानी छिड़कती है। अन्त में अपनी चप्पल खोलकर सुँघाती है। सहसा सुरेश आँखें खोलकर भयानक खोयी-खोयी आँखों से छाया की ओर देखता है। छाया घबरा कर दूसरी ओर हटती है। सुरेश की आँखें भी उधर ही घूमती हैं। छाया घबराकर चीख उठती है।)
शारदा – पाँच मिनट में घबरा गयी? तू तो इन्हें जीवन भर के लिए रख रही थी?
छाया – (डरी-सी) यह मजाक की बात नहीं है, शारदा!

(सहसा अन्दर से सुरेन्द्र सिंह की शारदा को पुकारने की आवाज |)

शारदा – आयी पिताजी! देख छाया, इन्हें हवा करती रह, मैं आती हूँ।
(शारदा जाती है)

(तुरत होश में आकर और बैठे होकर)

सुरेश –“गश खा के दाग यार के कदमों में जा गिरा,
बेहोश ने यह काम किया होशियार का”
छाया – (दूर हटकर) वाह, यहाँ तो जान जाती है, और आपको शायरी सूझती है।
सुरेश – “पहलुये यार से उठने को उठे तो लेकिन
दर्द की तरह उठे, गिर पड़े आँसू की तरह।”
छाया – मिर्गी का दौरा ठीक हुआ तो ग्रामोफोन हो गये। शारदा आये तो मैं भागूँ। आपको यह बीमारी कब से है?
सुरेश – जब से आपको देखा है।
छाया – (शरमाकर) धत्‌!
सुरेश – (गाते हुये) जब से देखा है तुम्हें, एक दर्द है दिल में निहाँ।
छाया – बस, बस, कोई क्या कहेगा?
सुरेश – वही कहेगा जो कहना चाहिए। परन्तु मैं सच कहता हूँ कि आज तक मुझे कभी ऐसा नहीं हुआ था।
छाया – शारदा को देखकर भी नहीं?
सुरेश – अजी, आपने भी भली चलाई। शारदा की शक्ल में क्या धरा है? बिल्कुल मोम है, मोम। कहाँ आप और कहाँ वह! एक आसमान का चाँद है तो दूसरा किसी रेलवे-कुली की लालटेन। एक पाँच हजार कैंडिल पावर की गैस लाईट है तो दूसरी महज कैंडील, यह भी क्या तुलना है!
छाया – (प्रसन्नता से) तो मैं आपको अच्छी लगती हूँ?
सुरेश – अच्छी क्या, आप तो आँखों के अन्दर ही जम कर बैठ गयीं, या यों कहिये, तीन-चार सीढ़ियाँ उतर कर दिल के पलंग पर लेट गयीं।
छाया – और शारदा कहाँ रहती है?
सुरेश – शारदा कहीं भी रहे, मुझे क्या? आप तो बीच-बीच में उसका नाम लेकर रसाभास कर देती हैं।
छाया – आप को ऐसा नहीं कहना चाहिए।
सुरेश – क्यों नहीं कहना चाहिए? मैं तो आप को प्यार करता हूँ। (हाथ पकड़ता है। छाया हटती है तो फिर कलाई पकड़ता है।)
सुरेश – सच कहता हूँ, प्यार क्या है; यह मैंने आज से पहले कभी अनुभव नहीं किया था।
छाया – (अपने को छुड़ाने की चेष्टा करते हुए) छोड़िए, छोड़िए, यह पाप है, ऐसा कभी नहीं हो सकता।
सुरेश – (उसे पकड़ते हुये) जरूर हो सकता है।
छाया – परन्तु, परन्तु, यह पाप है।

सुरेश – पाप-पुण्य का निर्णय आप मुझ पर छोड़ दें। फीस लेने पर वकील चुटकियों में पाप को पुण्य और पुण्य को पाप बना देते हैं। क्या स्वर्ग के न्यायालय में वकीलों की कमी रहेगी।
छाया – (छाया को बाहों में लपेटता है। वह भी चुपचाप सुरेश के कंधे पर सिर रक्खे खड़ी रहती है। सहसा शारदा का प्रवेश। छाया शरमाकर अलग हो जाती है।)
शारदा – तो यह बात है! मैं तो पहले ही ताड़ गयी थी।
सुरेश – मुझे बहुत दुःख है। परन्तु मैं छाया देवी से प्यार करता हूँ और उन्हें भी मुझसे अनुराग है।
शारदा – आप को बोलते हुए लज्जा भी नहीं आती? क्याप यही आपका धर्म है?
सुरेश – देखिए साहब, मेरे धर्म-अधर्म की चिंता आप न करें, अपना धर्म-संबंधी उपदेश किसी आर्यसमाज मंदिर में जाकर दीजिए या गीताप्रेस गोरखपुर से पुस्तक-रूप में प्रकाशित करा दीजिए। मेरे निजी मामले में बोलने का आपको क्या अधिकार है?
शारदा – पूरा अधिकार है। मैं आप को सही रास्ते पर लाकर दिखा दूँगी।
सुरेश – ठीक है। इस समय तो मुझे आँखें दिखाने के बजाय पीठ दिखाएं तो अच्छा है।
शारदा – नहीं, मैं नहीं जाती, यह मेरा घर है।
सुरेश – तो मैं ही चला जाता हूँ।
शारदा – (आगे आकर) तो मैं भी आपके साथ चलूँगी।
सुरेश – खूब है। जान न पहचान, बड़ी बीबी सलाम।
शारदा – भूल गये आपने मेरे साथ क्या-क्या प्रतिज्ञाएँ की थीं? मैं और आपके साथ प्रतिज्ञाएँ करूँ!
शारदा – हाँ, तो यह भी कह दीजिए कि आपने मेरे साथ शादी भी नहीं की थी?
सुरेश – आपके साथ शादी! जरा आइने में अपनी शक्ल तो देख आइए।
शारदा – हे ईश्वर! इतना अपमान? (छाया से) और तू खड़ी-खड़ी मेरी बेइज्जती करा रही है? शर्म नहीं आती तुझे? जा निकल मेरे घर से। (छाया जाती है। सुरेश जाना चाहता है। शारदा सामने आ जाती है और उसके पैरों पर गिरकर कहती है)
शारदा – देखिए, आप मेरे सर्वस्व हैं। मैं आपको ही अपने आगे-पीछे समझती हूँ।
सुरेश – समझती होंगी, पर मैं तो आपको अपने दाँये-बाँये भी नहीं समझता।
शारदा – क्या मैं आपकी पत्नी नहीं? नहीं, नहीं, नहीं, नहीं, सौ बार नहीं।
शारदा – ओह! धरती क्यों नहीं फट जाती कि मैं उसमें समा जाऊँ? मैंने क्या-क्या आशाएँ सजायी थीं? क्या-क्या सपने देखे थे? अपने हृदय की अनाप्रात कलिका लिये मैं अहर्निश जिसकी प्रतीक्षा में खड़ी रहती थी, वह इतना निष्ठुर होगा, इतना कठोर होगा, यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।
सुरेश –आप कोई गद्य-काव्य पढ़ रही हैं?
शारदा – हाँ, यह मेरे जीवन का गद्य-काव्य ही है जिसके एक-एक अक्षर में नारी-हदय का आर्तनाद गूँज रहा है, जिसकी एक-एक कड़ी चिल्ला-चिल्लाकर आपकी कठोरता की कहानी कह रही है। निष्ठुर! प्रवंचक! फिर मुझे अपने हाथों से जहर क्योंल नहीं दे देते? देखिए, देवीजी! एक तो मैं इस तरह के संबोधनों का आदी नहीं, दूसरे, अपने हाथों से आपको जहर दूँगा तो इंडियन पेनल कोड की कौन-सी दफा में मेरा चालान होगा, यह भी अच्छी तरह समझता हूँ। इसलिए अच्छा हो आप अपनी जीभ पर संयम रक्खें। दूसरी बात के लिये साइन्स कालेज की अपनी किसी सहपाठिनी से राय ले सकती हैं।

(सहसा रमेश का प्रवेश)
रमेश – दीदी, दीदी, छाया को तूने क्या कह दिया? वह कह रही थी, अब से कभी इस घर में पाँव भी नहीं रखूँगी।
शारदा – और यदि उस कलमुँही ने मेरे घर में पाँव रक्खा तो मैं उसका पाँव तोड़ दूँगी।
रमेश – (क्रोध से) तू छाया का पाँव तोड़ देगी!
शारदा – हाँ तोड़ दूँगी, हट यहाँ से; बड़ा आया है छाया का हिमायती बनकर?
रमेश – तू हट, यह घर तो मेरा है। तू छाया को यहाँ आने से रोकनेवाली कौन होती है!
(सहसा ठाकुर सुरेन्द्र सिंह का प्रवेश)
सुरेंद्र सिंह – क्या बात है? कैसा हल्ला मचा रक्खा है तुम लोगों ने?
शारदा – देखिए पिताजी, रमेश कहता है कि यह मेरा घर है, तू यहाँ से निकल जा।
सुरेंद्र सिंह – (रमेश से) सूअर के बच्चे! भाग यहाँ से, नहीं तो तेरी चमड़ी उधेड़ दूँगा।
(रमेश जाता है)

शारदा – और बाबूजी, (सुरेश को दिखाकर) यह कहते हैं कि इन्होंने मुझसे न तो ब्याह ही किया है और न मुझे अपने साथ ले जायँगे। उस कलमुँही छाया को जब से देखा है उसके पीछे लट्टू हो रहे हैं। थोड़ी देर पहले उसके साथ …
सुरेंद्र सिंह – बस, बस, बहुत सुन लिया, मैं तो देखते ही इन हजरत को ताड़ गया था। लेकिन बेटी मैं भी ठाकुर सुरेन्द्र सिंह नहीं, यदि इनके होश ठिकाने न लगा दूँ। तू जा, अभी जाकर सो जा, सबेरे इनसे निपदूँगा। मैंने महेश सिंह को तार दे दिया है और लिख दिया है कि आपका लड़का वनमानुष है, ऊँ हुँ, वनबिलाव है। जा, तू सो जा।
(शारदा जाती है)

सुरेश – सुनिये, एक भयंकर भूल हो गयी है।
सुरेंद्र सिंह – (डॉटकर) चुप रहो, मैंने बहुत जमाना देखा है। दस वर्ष तक आनरेरी मजिस्ट्रेट रह चुका हूँ। तुम्हारी तरह के नौजवानों को किस तरह राह पर लाया जाता है, यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। तुमने मेरी लड़की का दिल तोड़ दिया और अब कहते हो भयंकर भूल हो गयी।
सुरेश – लेकिन
सुरेंद्र सिंह – लेकिन वेकिन कुछ नहीं, मैं लड़की के विधवा हो जाने से डरता हूँ, नहीं तो अब तक मेरी दुनाली से छुटी हुई गोली तुम्हारे सीने के पार हो चुकी होती। मेरा निशाना कभी खाली नहीं जाता। (जोर से) भोला, ओ भोला, जरा मेहमान को सोने के कमरे में ले जा।

(सुरेन्द्र सिंह जाते हैं)
सुरेश – क्यों भोला, तुम्हारी बिटिया की शादी को यानी मेरी शादी को कितने दिन हुए?
भोला – यही आठ-नौ वर्ष, मालिक! आप दोनों तब इतने बड़े थे। (हाथ से दिखाते हुए, पहले दोनों हाथ से दिखाता है फिर निचला हाथ खींच लेता है)
सुरेश – और महेश सिंह यानी मेरे पिताजी ने क्या लिखा है?
भोला – अरे सरकार! उन्होंने लिखा है कि हमारे बबुआ विदाई के लिए जा रहे हैं। वह बड़े संकोची और झेंपू स्वभाव के हैं। खूब मजाक किया। समधी हैं न!
सुरेश – तो यह बात है। अच्छा भोला! बिना शादी हुए भी गौना हो सकता है?
भोला – (ताज्जुब से) अभी तक तो हमने नहीं सुना, मालिक!
सुरेश – अच्छा चल, मुझे सोने के कमरे में ले चल। मेरा सिर घूम रहा है।
(सहसा एक नौकर का प्रवेश)
नौकर – (जोर से) ठाकुर सुरेन्द्र सिंह हैं? ठाकुर साहब!
सुरेश – घर क्या है नाऊ की बारात है। जिसको देखो ठाकुर साहब की रट लगाता आं रहा है।
नौकर – आप कौन हैं जी? मान न मान मैं तेरा मेहमान।
सुरेश – अरे भाई, यहाँ तो उल्टी ही बात है। मान न मान, तू मेरा मेहमान।
नौकर – (धीरे से) पूरा चार सौ बीस जान पड़ता है। (जोर से) ठाकुर साहब, ठाकुर साहब!
(सुरेन्द्र सिंह का प्रवेश)
नौकर – बाबू साहब ने आपको याद किया है। कोई वनबिलाव आनेवाला है, उसीको देख़ने।
सुरेंद्र सिंह – वनबिलाव? कहाँ से? सुन्दरवन से या अफ्रिका से?
(हँसते हैं ।)
नौकर – यह तो नहीं बतलाया, सरकार! कहा है, सब को चाय पर बुला ला।
सुरेंद्र सिंह – (हँसते हुए) अरे कोई विलक्षण व्यक्ति आया होगा। (जोर से पुकारते हुए) शारदा, शारदा! भोला! जा, शारदा को भेज दे (भोला जाता है)।
(शारदा आकर खड़ी हो जाती है)
सुरेंद्र सिंह – (शारदा से) बेटी, तुम दोनों’जरा ठाकुर मनोहर सिंह के यहाँ, बगल में हो आओ, कुछ तबीयत बहल जायेगी। (सुरेश से) देखिए, कम-से-कम वहाँ तो आदमी जैसा व्यवहार कीजिएगा।
सुरेश – जी, मेरी बात तो सुन लीजिए। बड़ी गलती हो गयी है।
सुरेंद्र सिंह – ठीक है, ठीक है, गलती मैंने माफ कर दी। अब भी सुधारने का समय है। जाइए। अच्छा चलिए, मैं पहुँचा दूँ। शारदा भी अकेले जाने में शरमाती है। (तीनों जाते हैं)

यवनिका