bhool

चौथा दृश्य

(ठाकुर मनोहर सिंह का मकान। ठाकुर साहब बैठे-बेठे हुक्का पी रहे हैं। पास की कुर्सी पर हरिमोहन जो लॉ कालेज का विद्यार्थी है, बैठा पुस्तक पढ़ रहा है।)

मनोहर सिंह – ओह! ये इन्स्योरेन्स एजेन्ट भी खूब होते हैं। जोंक की तरह सीधे चिपट ही जाते हैं। बस किसीके पास पैसा रहने का पता चलना चाहिए। किसीका बूढ़ा बाप बड़ी-सी सम्पत्ति छोड़कर मर गया हो, किसीकी वकालत चल निकली हो या किसीने कहीं से कुछ भी पा लिया हो, बात-की-बात में दो एजेन्ट उसके आगे, दो पीछे, दो दाँये और दो बाँये। कम-से-कम आठ इन्स्योरेन्सवाले उसके चारों ओर मक्खी की तरह भनभनाने लगेंगे। भला-चंगा आदमी भी. समझ लेगा. कि घण्टे दो घण्टे में उसकी मौत होनेवाली है। उसकी विधवा पत्नी क्या करेगी? बच्चे किसकी शरण में जायँगे? बस ये सवाल मुँह बाये उसके सामने खड़े हो जायँगे। मैं तो कहता हूँ कि टी. बी. मलेरिया और हर तरह की बीमारियों के मारने के लिए पेंसिलिन, स्ट्रेप्टोमायसिन और जन जाने कितनी दवाओं का आविष्कार हर हफ्ते हो रहा है, परन्तु घण्टे भर में खाते-कमाते, चलते-फिरते स्वस्थ आदमी की सारी ताकत खींच लेनेवाले इन कीड़ों के लिए कोई दवा नहीं निकलती।

हरिमोहन – आज क्याल बात हो गयी? बेचारे निरीह इन्स्योरेन्स एजेन्टों पर आप क्योंम उबल रहे हैं? किसीसे झगड़ा तो नहीं हो गया?
मनोहर सिंह -क्या-ये लोग झगड़ा भी कर सकते हैं? सदा माँगने की मुद्रा में रहनेवालों से कोई झगड़ा-फसाद क्या करेगा!
हरिमोहन – फिर इस समय इनकी याद आपको ऐसे मधुर ढंग से क्यों आ रही है?
मनोहर सिंह – क्यों आ रही है! पढ़ो यह चिट्टी।

(चिट्ठी हरिमोहन के हाथ में देता है। हरिमोहन चिट्ठी पढ़कर)
हरिमोहन – यह बात है।
मनोहर सिंह – तुम्हीं बताओ, कॉलेज में एक-दो वर्ष साथ क्या पढ़ लिए और वह भी मुझे याद नहीं, तो उनके लड़के से मैं अपनी और अपने पूरे परिवार की बीमा करवा लूँ। लड़कों की फीस चाहे न दी जाय पर इन्स्योरेंस की किश्त के पैसे अवश्य भरने चाहिए। और इनकी दलील जानते हो? रास्ते में मोटर आप पर चढ़ गयी तो! जैसे कि मोटर को सड़क से ज्यादा आपकी पीठ ही सरपट मालूम होती है। नहाते समय नदी में पाँव फिसल गया तो! ट्रेन टकरा गयी तो! भूकम्प आ गया तो! और कुछ न हुआ तो-किसी बीमारी से ही मर गये तो! हूँ, मर गये तो मर गये, जीकर ही क्या कर लेते हैं!
(घड़ी में नौ बजते हैं)

अब आफत टल गयी जान पड़ती है। साढ़े छः बजे ही तो तूफान मेल आनेवाली थी, जिसमें हजरत को आना था। मैं तो इन इंस्योरेंस का घर में पदार्पण ही अशगुण समझता हूँ।
(सहसा बाहर से “कोई है” “कोई है” की पुकारने की आवाज)

मनोहर सिंह – आ गयी बीमारी। जा हरि! कह दे, इस तरह गला क्यों फाड़ रहा है। यह कोई बहरों का अस्पताल तो है नहीं, चुपचाप आने की कह दे। (फिर आवाज)। ओह! अन्दर आ जाओ, इस तरह चिल्लाने से लोग समझेंगे कि कहीं आग लगी है।

(शिरीष का काली के साथ प्रवेश। मनोहर सिंह कड़ी दृष्टि से देखता है। शिरीष पीछे हटता है। हरिमोहन भी क्रोध से देखता है। वह घबड़ा जाता है। नौकर सामान रखकर गाड़ीवान को दो रुपये देना चाहता है।)

काली – यह मकान ठाकुर…
मनोहर सिंह – (कड़े शब्दों में) हाँ यही है, दो घण्टे से तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
गाड़ीवान – क्या दो रुपये! वाह, बाबूजी, वाह! सारे शहर का तो चक्कर लगवा दिया, और दो रुपये देते हैं, सात बजे से ढूँढ रहा हूँ। वैसे भी दो घण्टे के पाँच रुपये होते हैं।
काली – तू खुद ही चक्कर काटता रहा, हम क्या करें! गाड़ी हॉकता है और चिराग हुसेन की गली भी नहीं जानता।
गाड़ीवान – मैं तो चिराग हुसेन के बाप की भी गली जानता हूँ आप ठीक से बोलें भी तो।
काली – अच्छा, अच्छा, ज्यादा बढ़-बढ़कर मत बोल, ले।
(एक रुपया और देता है.)
गाड़ीवान – क्या भीख देते- हैं? पाँच रुपये से कौड़ी कम नहीं लूँगा।
शिरीष – ऊँह, काली, दे उसे पाँच रुपये।

(काली नहीं चाहते हुए भी रुपये निकाल कर देता है। गाड़ीवान जाता है।)

मनोहर सिंह – बैठिए।

(शिरीष बैठता है, नौकर भी बैठना चाहता है पर शिरीष का इशारा समझकर पुनः खड़ा हो जाता है)

मनोहर सिंह – (रुखाई से) तो आप अब पहुँचे हैं! यंह तो देखना चाहिए, किसी भले आदमी के यहाँ पहुँचने का समय क्या है। दाई-नौकर सब चले गये। भोजन किया कि नहीं? नहीं, तो फिर कुछ प्रबन्ध करूँ।
शिरीष – जी भोजन! भोजन तो वहीं कर लिया।
मनोहर सिंह – ओह, वहीं कर लिया। ठीक किया।
हरिमोहन – आप लोगों को मकान ढूँढ़ने में बड़ी कठिनाई हुई?
काली – कुछ न पूछिए, दो घण्टे में सारे शहर की परिक्रमा कर ली। एक बार तो गाड़ीवान एक ठाकुर सेविंग सैलून में ले गया, फिर एक ठाकुर होटल में। उसके बाद एक ठाकुरजी के मन्दिर में जा पहुँचा। दो घण्टे चक्कर काटने के बाद कहीं आपके मुहल्ले का पता चला। बाबू तो मारे संकोच के कहीं रुक कर पता भी नहीं पूछने देते थे।
मनोहर सिंह – इसमें संकोच की क्या बात थी?
शिरीष – जी, जी, कुछ नहीं।
मनोहर सिंह – आजकल के लड़कों का यही तो हाल है। संकोच में तो स्त्रियाँ भी उनसे मात हैं। पर आपको तो संकोच नहीं करना चाहिए।
हरिमोहन – (उठकर और शिरीष के पास आकर) क्यों. जनाब! रास्ते में गाड़ी तो नहीं लड़ी?
शिरीष – जी नहीं।
हरिमोहन – भूकम्प हुआ था?
शिरीष – भूकम्प? भूकम्प का तो पता नहीं, हाँ, गाड़ी के झटके से मैं दो-तीन बार गिरते-गिरते बचा।
हरिमोहन – स्टेशन पर कौलरा हुआ था?
शिरीष – (घबराकर) कौलरा? जी, कौलरा तो हुआ था।
हरिमोहन – और प्लेग भी?
शिरीष – (और घबराकर) जी, हाँ।
हरिमोहन – और टी. बी. भी हुई थी न?
शिरीष – जी, टी. बी.?
हरिमोहन – कहिए, हुई थी। फिर आप बचकर कैसे चले आये? आपकी पत्नी का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य?
(हँसता है। शिरीष चक्कर में है। सहसा छाया का प्रवेश। वह मनोहर .सिंह के पास जाती है। शिरीष
एक और हट जाता है और काली के कान में कुछ कहता है। )

शिरीष – काली, काली!
काली – (गम्भीरता से) सरकार?
शिरीष – मेरा सिर छू कर देख तो ।
काली – क्यों सरकार?
शिरीष – है कि नहीं?
छाया – (जोर से बोलती है) नहीं, पिताजी, अब मैं उसके यहाँ जा ही नहीं सकती। आज उसके पतिदेव जरा मुझसे हँसकर बोलने लेंगे तो जल कर कोयला हो गयी। उसने मेरा अपमान किया है। बड़ी ईर्ष्यालु है।
मनोहर सिंह – (हँसते हुए) यह तो स्त्रियों का स्वभाव ही है। (शिरीष और काली की ओर संकेत करके) ये अपने मेहमान हैं, इन्हें बगलवाला कमरा ठहरने के लिए दिखा दे।
छाया – (शिरीष से) चलिए।

(जाना चाहती है। इसी समय सुरेन्द्र सिंह, शारदा और सुरेश का प्रवेश होता है। छाया और शिरीष ठहर जाते हैं।)

सुरेंद्र सिंह – लो बेटी, अब आपस में न लड़ना, मैं जाता हूँ।
मनोहर सिंह – अरे आइए, एक बाजी शतरंज तो हो जाय।
सुरेंद्र सिंह – नहीं, आज मन ठीक नहीं है।
(सुरेन्द्र सिंह जाता है)
मनोहर सिंह – तो हरि, मैं भी सोने जाता हूँ। काफी विलम्ब हो गया। तुम लोग आजादी से चाय-पान करो।
(मनोहर सिंह जाते हैं।)
हरिमोहन -मैं अभी आया (जाता है)।
सुरेश – (शिरीष से) अच्छा, आप हैं?
शिरीष – (चौककर) अरे, आप?
सुरेश – जी हाँ मैं। (शारदा को दिखाते हुए) और ये हैं मेरी…क्या कहते हैं अंगरेजी में – स्वीट हार्ट! आपको कोई आपत्ति तो नहीं?
शिरीष – मुझे? मुझे क्या आपत्ति होगी! मैं तो कवि हूँ। प्रेम में परमात्मा की ज्योति के दर्शन करता हूँ।
सुरेश –और ये रहीं आपकी भगवती (शारदा को दिखाते हुए) पहले तो इन्हींके आगे माथा टेकिए।
शारदा – (प्रेमपूर्ण दृष्टि से सुरेश को देखती हुई) जाइए भी।
सुरेश – वाह, इसमें जाने-आने, उठने-बैठने की क्या बात है? क्या तुम मेरे प्रेम में सिर से पैर तक ऊबडूब नहीं हो रही हो ? अभी तो तुम मेरे गले से ऐसी लिपट रही थी कि मुझे लगा कि मैं दफा 302 का मुजरिम हूँ। (शिरीष से) क्यों साहब, यह जंगली लता की तरह मेरे चारों ओर लिपट जायँ तो मैं क्यों शरमाऊँ? आप शरमा सकते हैं।
छाया – आप लोग एक-दूसरे को जानते हैं?
सुरेश – मैं तो जरूर इन्हें अच्छी तरह जानता हूँ। और यह भी जान ही जायँगे! शाम नहीं तो सुबह। (छाया की ओर) आप इतनी देर से कहाँ खो गयी थीं?
छाया – बस, बस, (शारदा की ओर देखकर) आप इधर खिँचे कि इनकी भौहें खिंचने लगीं। अच्छा तो यह है कि आप इनकी आँखों में ही बैठे रहें । (शारदा लजाती है) अच्छा छोड़िए इन बातों को। शारदा एक गीत तो सुना। वही होलीवाला, “मेरी आँखों में पड़ गयी गुलाल, पिया! ।

(शारदा गाती है)
मेरी आँखों में पड़ गयी गुलाल, पिया!
रेशम की सुंदर साड़ी मसक गयी, प्रीत बनी जंजाल, पिया!

रूप निगोड़ा कहाँ ले के जाऊँ! लद गयी फूलों से डाल, पिया!
रस के भरे कचनार-सी बाँहें, गोरे गुलाब-से गाल, पिया!

मान भी कैसे करूँ अब तुमसे! आये बिताकर साल, पिया!
इतने दिनों पर याद तो आयी, हो गयी मैं तो निहाल, पिया।

एक ही रंग में भीगे हैं दोनों, एक है दोनों का हाल, पिया!
साँवरे-गोरे का भेद कहाँ अब! तन-मन लाल ही लाल पिया!

आँखों में अंजन, माथे पै बिंदिया, हाथ अबीर का थाल, पिया!
बचके गुलाब अब जा न सकोगे, लाख चलो हमसे चाल, पिया!

मेरी आँखों में पड़ गयी गुलाल, पिया!
रेशम की सुंदर साड़ी मसक गयी, प्रीत बनी जंजाल, पिया!

छाया – वाह, वाह! क्या गाया है। अब लगे हाथों एक चैती भी सुना दे।
(शारदा पुनः गाती है)
बीत गये ग्यारह मास, पिया! अब फागुन न बीते
जेठ भी बीता, अषाढ़ भी बीता, पूस के गये हैं दिन खास
पिया! अब फागुन न बीते
फूले कचनार, पलास भी फूले
रंग गुलाब के, आँखों में झूले
महुआ, की महक उदास, पिया! अब फागुन न बीते
चली पुरवैया अबीर उड़ाती
बाग में कोयल है धूम मचाती
सरसों ने रच दिया रास, पिया! अब फागुन न बीते
अबकी मिलोगे तो जाने न दूँगी
प्यार के रँग में तन-मन रँगूगी
कह दूँगी कानों के पास, पिया! अब फागुन न बीते
बीत गये ग्यारह मास, पिया! अब फागुन न बीते

छाया – वाह! ये तो अनुभूति की बातें जान पड़ती हैं।
शारदा – (लजाकर) धत्‌।

(हरि का, चाय का ट्रे लिये हुए नौकर के साथ प्रवेश। सब चाय पीते हैं। सुरेश शिरीष को दिखाते हुए शारदा की ओर झुकता है। शिरीष छाया की ओर झुकता है तो वह घुड़क देती है। वह सिटपिटा जाता है।)

सुरेश – आप की उम्र क्या है?
हरिमोहन – माफ कीजिए, (शिरीष को दिखाकर) मेरी जान को तो यही बहुत हैं। एक जान पर कितने मेहमान होंगे।
(चाय समाप्त हो जाती है।)
शारदा – अच्छा, अब मैं चली, रात बहुत हो चुकी।
छाया – हाँ जी, आज नींद भी जल्द आने लगी। क्योंो न आये? अब हमें कौन पूछता है!
हरिमोहन – मैं भी साथ चलता हूँ। आप लोगों को पहुँचा दूँ।
(शिरीष और छाया को छोड़कर सब जाते हैं।)

छाया – चलिए, आपके सोने का कमरा दिखा दूँ।
शिरीष – (चौंक कर) हें, हें, हें, चलिए, (जाते हैं।)
(थोड़ी देर में हरि और छाया, दोनों का दो ओर से प्रवेश)
हरिमोहन – भला यह गरीब इंस्योरेन्स क्या करा पाता होगा! मुँह तो खुलता ही नहीं। लगता है जैसे ससुराल में आया हो।
छाया – और ऊपर से तुर्रा यह कि साथ में आदमी लेकर चले हैं। जैसे गौना लिवाने जा रहें हों। अजीब आदमी है। मेरी ओर तो ऐसे देखता है जैसे मैं अजायबघर से लायी गयी हूँ।
हरिमोहन – तो इसमें आश्चर्य क्या है! तेरे बाल झाड़ने का ढंग 4थी शताब्दी का है, अंचल डालने का तरीका 11वीं शताब्दी का और दिमाग छठी शताब्दी का। मैंने कई बार इतिहास के विद्यार्थियों को तेरी ओर बड़ी एकाग्रता से देखते देखा है। प्रोफेसर दिलदेकर तो एक दिन क्लास में कह रहे थे…
छाया – (बीच में) चुप रहो, तुम लोग कॉलेज में लड़कियों की ओर एकाग्रता से क्यों देखते हो, यह मैं अच्छी तरह समझती हूँ। एक हजरत को तो मुझे देख कर कीट्स की कविताएँ याद आने लगती थीं। दूसरे साहब न्यूटन के आकर्षण के सिद्धांत का पाठ करने लगते थे। एक दिन मैंने दोनों की ऐसी फोटों खींची कि बच्चू जीवन भर याद रक्खेंगे।
हरिमोहन – क्या किया?
छाया – आपस में लड़ा दिया। एक की बाँई आँख सदा के लिये टेढ़ी हो गयी और दूसरे की कलाई टूट गयी।
हरिमोहन – तू बड़ी शोख लड़की है! अब तो पिताजी से कह कर जल्द तेरे लिये एक दूलहा ढूँढ़ देना है।
छाया – पहले अपने लिये एक दुलहन ढूँढ़ ले, फिर मेरी चिंता करना।
हरिमोहन – मैं तो सोने चला। बातों में तुझसे कौन जीतेगा!
(हरिमोहन जाता है। छाया आइने के पास खड़ी हो जाती है और मुग्ध दृष्टि से अपने अंगों का प्रतिबिम्ब देखती है। सहसा सोफे पर एक नोटबुक देखकर उठा लेती है और पढ़ने लगती है।)

छाया – ‘रानी! अब मुझको मत तड़पाओ” अच्छा तो यह है इन हजरत की कविता का नमूना। “मेरे अरमान अधूरे हैं” वाह रे आपके अरमान! देखने में तो बड़ा सीधा-सादा
जान पड़ता है पर है छँटा हुआ। “कैसा होगा वह प्रथम मिलन’ हूँ, मैं बताऊँ?

जब तेरी गंज खोपड़ी पर मेरी चप्पल पड़ जायेगी,
नभ से हिम-कण-सी आँखों से आँसू-सरिता झड़ जायेगी,
तब तू बोलेगा, क्षमा देवि!
प्रेयसी नहीं तू माता है,
दिल की वी. पी. वापस लेकर
यह सेवक बैरँग जाता है।
तब मैं बोलूँगी, देख कभी, इस ओर न मुड़ कर मुँह करना,
वर्ना अबकी तो चप्पल पर बीती, आगे वह छाता है।
इस तरह मधुर आशाओं का आहों में होगा परिवर्तन,
ऐसा होगा वह मधुर मिलन।

(सहसा शिरीष का प्रवेश। वह घबराया हुआ-सा आता है)
शिरीष – (छाया को देखकर) जी, आप? हैं, हें, हें,
छाया – मैं, हें, हें, हे, मैं, कहिये क्या बात है? कोई कष्ट है?
शिरीष – कष्ट? क्याद कहूँ? कैसे कहूँ?
छाया – कहिये, कहिये कि आप मुझसे…
शिरीष – (गद्गद होते हुए) जी, जी, मैं आपको पसन्द हूँ
छाया – पसन्द? अजी, मैं तो सपने में भी आपको ही देखती हूँ।
शिरीष – (और गदूगदू होते हुए) मुझे? मैं आपसे ऐसी ही आशा करता था।
छाया – ओ हो! अरे, मैं तो आपके लिये दीवानी हो रही थी।
शिरीष – सच? मेरी रानी, मैं भी तुम्हारे लिये दीवाना हो रहा था। मैंने तुम्हारे विरह की घड़ियाँ कैसे बितायी हैं, क्या बताऊँ!
छाया – आह, मेरे प्यारे! मैं तुम्हारे वियोग में तारे गिन-गिनकर रात बिताती थी। मेरी आँखों में सावन-भादों की झड़ी लगी रहती थी। न दिन में भूख थी न रात में नींद।
शिरीष – ओह! आज मेरी आशाओं की कली खिल कर फूल हो गयी। आज मेरे जीवन का जहाज अपने सपनों के बंदरगाह में पहुँच गया। मेरी आशा! मेरी प्राण! मेरे हृदय की रानी! जीवन की जीवन ! साँसों की साँस! प्राणों की प्राण! (पास जाकर छाया का हाथ अपने हाथ में लेकर) क्या तुम सचमुच मेरे लिये तड़पती थी, मेरी रानी? (दोनों हाथों को छाया के कन्धे पर रख देता है। छाया घबरा कर पीछे हटती है)।
शिरीष – रूठ गयी? मेरी रानी, मैं खुशी से पागल हो जाऊँगा। केवल इसी क्षण की प्रतीक्षा में मैंने एक हजार कविताएँ लिखी हैं जिनको मैं ‘मिलन-हजारा” के नाम से छपानेवाला हूँ।

छाया – (हटते हुए) अच्छा एक-दो कविता सुनाइए तो ।
शिरीष – (छाती पर हाथ रखकर भावावेश की मुद्रा में)
एयर कंडीशन कमरे में हम, प्रिये! मिलेंगे प्रथम बार
ऊपर होंगे बिजली लट्टू,
नीचे मृदु सोफों की कतार
तुम मुग्धा होगी भाव-प्रवण,
विकसेंगे कलियों-से उरोज
हाथों में विजिटिंग कार्ड लिये,
मैं तुरत तुम्हें लूँगा न खोज!
छाया – वाह! वाह! खूब! एक और सुनाइए।
शिरीष – मिलेंगे जब हम पहली बार,
प्रिये कैसा होगा व्यापार?
नयन के मोती दे दस बीस,
मोल लूँगा मैं अधर-शिरीष,
पकड़ लेंगे झट भृकुटि-पुलीस,
ब्लैक-मार्केट का देख विचार।
तुम्हारी “ना में ‘हाँ” का बोल,
और “हाँ” में सुख-स्वर्म अमोल,
हँसी में तो बस यैली खोल,
लुटेगा उर का रत्नागार।

छाया – कविता तो आप अच्छी लिखते हैं, परन्तु मुझे तो मुक्त-छंद ज्यादा पसन्द है।
शिरीष – सुनिए, मुक्त छन्द भी सुनाता हूँ।
जब होगा गगन के प्रांगण में उदय,
धीरे-धीरे,
हौले-हौले,
हँसिये-सा, आरी-सा,
नयनों की कटारी-सा,
दूज का ऐंठा हुआ चाँद,
तब मैं चुपचाप किसी,

ताड़ या बबूल के,
अथवा झाऊ के ही तले,
नयनों में चाह लिये
उर में कराह लिये,
देखूँगा तुम्हारी राह,
डकुर, डुकुर,
और तुम आओगी,
जॉर्जेट की साड़ी में,
इंपाला गाड़ी में,
या तो हाथ रिक्से पर ही,
मेरे पास आकर झट,
भौहों को नचाती-सी,
बिजली-सी गिराती-सी
हाथों में मेरा यह हाथ लेकर,
कहोगी, ‘प्राणप्यारे! प्राणनाथ! प्राणबल्लभ!
आओ तुम्हें. साथ लेकंर,
आज मैं चलूँगी’ वहाँ
मादक संगीतमयी, प्रेममयी नगरी में,
जिसको कहते हैं सभी
प्रेमीजन एक स्वर में,
छाया – नर्क या जहन्नुम! आपने अपनी शक्ल कभी आईने में देखी है?
शिरीष – आपकी आँखों में मैं अपने को देख रहा हूँ।
छाया – कैसे लगते हैं, जानते हैं?
शिरीष – जैसे मानसरोवर में पूनों का चाँद!
छाया – जैसे दूध में मक्खी। बदतमीज! बेहूदा! निकल यहाँ से।
शिरीष – (अकचका कर) ऐं, ऐं, यह आप क्या कह रही हैं!
छाया – निकलता है कि मैं पिताजी और भैया को बुलाऊँ?
शिरीष – जाता हूँ, ईश्वर के लिये ऐसा गजब न कीजिए।
(जाने लगता है)
छाया – ठहरो, अपनी यह गुदड़ीबाजारवाली कविताओं का ढेर भी लेते जाओ।
(डायरी फेंकती है)
छाया – सबेरे सूरज उगने के पहले इस घर को छोड़ देना, नहीं तो
शिरीष – नहीं तो?
छाया – नहीं तो तुम्हारी हरकतें मैं पिताजी से कह दूँगी।
शिरीष – अरेरे, कहो तो मैं अभी ही चला जाऊँ। मुझे क्या है, तुम्हीं जीवन भर रोओगी।
छाया – मैं तुम्हारे जैसे चुकंदर के लिए उम्र भर रोऊँगी? निकल यहाँ से, बदशक्ल कहीं का! निकलता है कि नहीं? (जोर से) भैया!
शिरीष – जाता हूँ, जाता हूँ (बाहर चला जाता है) ।
(हरि का प्रवेश)
हरिमोहन – क्या बात है, छाया? भैंस की तरह क्योंि रँभा रही है?
छाया – आज तो जान पड़ता है कि पुरुषों पर प्रेम का भूत ही सवार हो गया है।
हरिमोहन – क्यों, क्या हुआ?
छाया – पहले तो शारदा के पतिदेव मेरी प्रशंसा के पुल बाँधने लगे। उसके बाद वह जो शारदा का छोटा भाई रमेश है न, अभी जुमा-जुमा आठ दिन के भी नहीं हुए हैं और हजरत लगे मुझसे प्रेम करने का दम भरने। मैं शारदा के यहाँ से आने लगी तो मुझसे कहने लगे कि छाया! अगर तूने मेरे साथ ब्याह करना स्वीकार नहीं किया तो मैं पोटेसियम साइनाइड खा लूँगा। तीसरा नम्बर इन महाशय का है। अरे, अपने यहीं इंस्योरेंस एजेंट का। कहते थे कि मैं आपसे मिलने के लिये बरसों से तड़प रहा था! आप पर एक हजार कविताएँ लिखी हैं। मुझे तो छँटा हुआ बदमाश जान पड़ता है।
हरिमोहन – (क्रोध से) मैं अभी उसकी हड्डी-पँसली एक कर देता हूँ।
छाया – जाने भी दो। सबेरे से पहले तो मैं समझती हूँ आप ही खिसक जायगा। मैंने अच्छी शिक्षा दे दी है उसे। जाओ, सोओ अभी, (हरि जाता है)।

(छाया “मेरी आँखों में पड़ गयी गुलाल, पिया” गुनगुनाती हुई शीशे के पास चली जाती है और अपना श्रृंगार ठीक करने लगती है।)

(यवनिका गिरती है)