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छठा दृश्य

(मनोहर सिंह का मकान। कमरे में मंद, नीला प्रकाश । दो पलंग बिछे हैं जिनमें से एंक पर शिरीष सोया है, एक पर काली। शारदा हाथ में पिस्तौल लिये आती है।)

शारदा – यही तो कमरा है छाया का। पर इसमें एक की जगह दो पलंग क्यों बिछे हैं? ऐं? यह तो कोई पुरुष जान पड़ता है। ओह, मैं तेरी पड़ोसिन होकर भी तुझे नहीं पहचानती थी। छाया! तू स्त्री जाति का कलंक है। तुझे मरना ही चाहिये।
शिरीष – हैं, हें, मुझे मरना ही चाहिये? नहीं, नहीं, मैं हाथ जोड़ता हूँ। मुझे मत मारिये। मैं सवेरे ही वापस चला जाऊँगा। मुझे पत्नी नहीं चाहिए, प्रेम नहीं चाहिए, कविता नहीं चाहिए, मुझे मेरी जान चाहिए।
शारदा – आप प्रेमी होकर मरने से डरते हैं?
शिरीष – हाँ, डरता हूँ, मृत्यु के बाद बहादुरी, प्रेम और साहस, इन सभी का अन्त हो जायेगा। यदि मेरी प्रशंसा भी होगी तो मेंरे लिये बेकार होगी। ना, ना, जीवित रहकर निन्दा सुनना अच्छा है। मैं मरने से डरता हूँ। जीते जी प्रेम का नाम भी नहीं हूँगा। मुझे मत मारिए! मत मारिए। हाथ जोड़ता हूँ। पैर छूता हूँ। मुझे मत मारिए।
शारदा – आप की दशा देख कर मुझे हँसी आती है। इससे मेरा गुस्सा ठंडा होने का डर है। आपका खून करके मैं अपना कीमती कारतूस नहीं बरबाद कर सकती। डरिए मत।
शिरीष – ओह, जान बची, मैं भूल कर भी अब यहाँ नहीं आऊँगा। जीता रहा तो बहुत स्त्रियाँ मिलेंगी। ओह, कभी इस दरवाजे पर पाँव भी नहीं धरूँगा।
शारदा – प्रतिज्ञा कीजिये।
शिरीष – प्रतिज्ञा करता हूँ। हनुमानजी की, आपकी, काली मैया की, सबकी शंपथ खाता हूँ।
(आवाज)
शारदा – सब को जगा दिया। बलि के बकरे की तरह चिल्लाता है। (पगध्वनि) सब विचार धूल में मिला दिया। जानवर!
(जाती है)
(शिरीष काली को जमगाता है)
काली – उँह; कौन है? सोने नहीं देते।
शिरीष – बेवकूफ, उठ जल्दी, नहीं तो, सदा के लिये सो जायगा।
यहाँ काल घूम रहा है।…
काली – काल! जय काली, महाकाली, भद्गकाली नमस्तुते।
जयति मर्कटाधीश, मृगराज-विक्रम, महादेव मुद मंगलमय
कपाली।
मोह-मद-क्रोध-कामादि-खल-संकुल घोर संसार-निशिकिरणमाली।
शिरीष – आँख तो खोल, सोया हुआ बड़बड़ा रहा है।
काली – नहीं पहले काल को हाँक देने दीजिये।
जयति परज-यंत्र मंत्राभिचार-ग्रसन, कारमन-कूट कृत्यादि-हंता
शाकिनी-डाकिनी-पूजन-प्रेत-बेताल-भूत, प्रमथ-भूत-हंता
शिरीष – ओह! यह क्या साँप झाड़ने का मंत्र पढ़ने लगा! उठ,
जल्दीी उठ।
(काली उठता है।)

शिरीष – अभी हाथ में पिस्तौल लिये वह आयी थी।
काली – ईति अति भीति ग्रह-प्रेत-चौरानल-व्याधि-बाधा-शमन शक्ति भारी।
डाकिनी-शाकिनी-पापिनी नाशै, हंतार-संसार-संकट दनुज-दर्पहारी ।
शिरीष – फिर वही प्रलाप?
काली – सरकार! नये घर में जब आदमी आता है तो भूत-प्रेत मिलते ही हैं। मैंने चलते समय हनुमानजी की प्रार्थना रट ली थी।
शिरीष – अरे भाई! भूत-प्रेत नहीं, वही तुम्हारी मालकिन, जिन्होंने रात में मुझे कमरे से निकाल दिया था, हाथ में पिस्तौल लेकर मुझे मारने आयी थी।
काली – ओह, समझ गया। वह मसानावाली हैँड़िया-बटोरन डाइन थी। वे सब तरह की शक्लें बना लेती हैं।
शिरीष – सच?
काली – हाँ सरकार! पर मैं उनका गुरु-मंत्र जानता हूँ।
मेंढकी की ढाल, जवा की तलवार, घोड़े की नाल पर होकर सवार, तेलिया मसान पर वीर हनुमान, काट-काट कर रहा खेत खलिहान। शब्द साँचा, पिंड काचा, चलो मंत्र ईश्वरोवाचा।
शिरीष – यह तो जैसे रहस्वादी कविता है। बस उतनी क्लिष्ट नहीं है।
काली – हाँ सरकार, ईष्ट तो है ही, इसके पाठ से डाइन तुरत भाग जाती है।
शिरीष – लेकिन, काली! अब हम लोगों को सोना नहीं चाहिये।
काली – बिल्कुल नहीं, लड़की मिल जाय वही गनीमत है, सरकार सोना-चाँदी तो बहुत मिलेगी!
शिरीष – अरे वह सोना नहीं, नींद नहीं लेनी चाहिए, नहीं तो कहीं हँड़िया-बटोरन डाइन आकर छुरा ही न भोंक दे।
काली – आइए, सब सामान इकट्ठा कर लें और हम लोग पहरा दें।
(सामान बाँध कर इकट्ठा करते हैं और दोनों उठकर बैठ जाते हैं।)

(यवनिका)