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सातवाँ दृश्य

(रात का दृश्य, छाया लेटी है। मंद प्रकाश। शारदा का प्रवेश)

शारदा – हूँ, अब इस कमरे में आकर सोने का बहाना किये लेटी है। अभी थोड़ी देर पहले उस कमरे में प्रेम का पाठ पढ़ा जा रहा था। समझती है, मैं कुछ नहीं जानती परन्तु मैं तेरी नस-नस पहिचानती हूँ। डाइन! चुडैल कहीं की!
छाया – (जागकर) कौन, शारदा?
शारदा – हाँ शारदा, फिर एक बार पुकार ले, नहीं तो मेरे कान तेरी आवाज सुनने के लिए तरसते ही रहेंगे।
छाया – क्या बकती है?
शारदा – मैं बकती नहीं हूँ। मैं आज तेरे इन शराब के कटोरों जैसे लाल-लाल होठों को सदा के लिए बंद करने आयी हूँ जिससे अपनी दोनों जीभों से तू फिर किसी और को न डँस सके। सॉपिन!
छाया – ओह, तुझे उन्माद हो गया है। पिस्तौल दूर फेंक, गोली छूट जायगी। मैं नहीं जानती थी, शारदा! कि तू इतनी ईर्ष्यालु है।
शारदा – और मैं भी नहीं जानती थी कि तू इतनी फरेबन है। उधर कमरे में एक प्रेमी सोया है, इधर मेरे पति पर डोरे डाल रही है। वह तेरे प्रेम में अंधे हो रहे हैं। तुझसे विवाह करने पर उतारू हैं। ओह, संसार के समस्त पुरुषों का प्रेम भी एक लोलुप नारी के हृदय को सन्तुष्ट नहीं कर सकता। कपटी! नीच!
छाया – शारदा! बाहर जाती है कि मैं भैया को पुकारूँ?
शारदा – शारदा बाहर जायगी, पर तेरी जान लेकर।

(पिस्तौल छूटने की आवाज, और चीख की आवाज। मंद प्रकाश, छाया जमीन पर पड़ी है।)

शारदा – बस, अब मेरा कलेजा ठंडा हुआ। अपने किये का फल भोग। (शारदा जाती है)

(यवनिका)