boonde jo moti ban gayee
किस अनजान नगर की अनचीन्ही गलियों में
तुम भटक रही होगी!
ओ प्रवंचिते | चिर-सुहाग-वंचिते !
क्या तुम्हें अब भी मेरे उस प्रेम की याद है
जो प्रेम वसंत की संध्या में आया था
और ग्रीष्म के प्रभात में विदा हो गया था!
उस अभागे शिशु की तरह
जो माँ की कोख से धरती पर आते ही
चिर-निद्रा में सो गया था!
आह ! मैं अब भी तुम्हें याद करके रोया करता हूँ,
तकिये में अपनी सिसकियाँ डुबोया करता हूँ।
जीवन एक प्रवाह है
जो कभी लौटकर नहीं आता है,
जीवन में जो गाँठ खुल जाती है
वह फिर बँध नहीं पाती है,
जो हाथ फैलता है वह फैला ही रह जाता है.
परंतु ओ सुकुमारी !
धारा में से तुमने मुझे पुकारा क्यों नहीं !
कम-से-कम हम साथ-साथ तो बहते,
अपनी अलग-अलग नौकाओं पर बैठे-बैठे ही
संकेतों से तो कुछ कहते
यों तो अब समय बीत चुका है
और सागर-संगम की वेला आ रही है,
पर मेरी आँखों में अब भी
तुम्हारी वही छवि झिलमिला रही है
जब प्रेम की गर्वानुभूति से पुलकित
तुम्हारे स्वर फूट पड़े थे,
डरे-डरे, सकुचे-सकुचे,
“हाय ! तुम यहाँ तक भी आ पहुँचे !”