boonde jo moti ban gayee
तू भी तो हाड़-माँस की पुतली है,
पत्थर की मूरत नहीं है,
तेरी आँखें भी तो सदा करुणा से छलछलाती रही हैं,
मैंने तेरे वक्ष को आवेगों में उठते-गिरते देखा है,
कहीं-न-कहीं तो तेरे हृदय में भी पीड़ा की जलती रेखा है,
फिर भी तू मुझे इतना क्यों तड़पाती है?
मेरी बाँहों में क्यों नहीं आती है ?