chandan ki kalam shahad mein dubo dubo kar

पद्मभूषण श्री सीताराम सेकसरिया जी के निधन पर

छिप गया-अचानक ज्योतिपुंज-सा आँखों से,
अब पथ पर नहीं प्रकाश दिखाई देता है
यों तो तारों की भीड़ लगी है वैसी ही,
सूना-सूना आकाश दिखाई देता है।
वह कहाँ, सुवासित था जिससे यह जनारण्य,
वह कहाँ, सुखद जिससे यह हरियाली फूटी!
हर आनन पर आँसू की बूँद चमकती है,
हर अधर लिये उच्छवास दिखाई देता है

बापू ने यत्नों से जो माला गूँथी थी,
उसके मनके सब एक-एककर टूट गये
जिनकी कीमत में ताजमहल भी हलके थे,
वे रल अलौकिक जल-बुदबुद-से फूट गये
हम रोयें किसके आगे, कहाँ पुकार करें!
अवकाश नहीं देता है यह भी काल हमें
हम तुम्हें मुट्टियों में कसकर थे धरे हुए
पर तुम भी बीच भँवर में आखिर छूट गये

इस संसृति-सागर में शत-शत रूपोंवाली
लहरें अविरल उठती-गिरती ही रहती हैं
इस नील गगन में नयी-नयी आकृतियाँ ले
घन-मालायें क्षण-क्षण घिरती ही रहती हैं
जो लहरें मणि-मुक्ताओं से तट भर ज़ार्ती,
जो मेघ उगा जाते हैं सोने की फसलें
सूरतें किंतु उनकी ओझल होने पर भी
दुनिया की आँखों में तिरती ही रहती हैं
कैसे भूलेंगे लोग भला कलकत्ते के

हे तपी! तुम्हारे स्नेह-विटप की छाया को!
शिक्षायतनों में पली बालिकायें कैसे
भूलेंगी जननी की-सी ममता-माया को!
हे पर-दुख-कातर ! मिटा-मिटाकर अपने को
तुमने जीवन के सपने को द्युतिमान किया
हम भूलें कैसे प्रेममरा वह हास सरल,
देवोपम, गौर, कमल-सी कोमल काया को!

अंतिम प्रणाम लो हे अनंत पथ के यात्री!
हम चरणों पर शब्दों की भेंट चढ़ाते हैं
आती है ज्यों ही याद तुम्हारी निर्मल छवि
अक्षर-अक्षर बनकर गुलाब खिल जाते हैं
हे चिर-अजातरिपु! सेवालीन कर्मयोगी!
सबको प्रिय, सबके लिए सदैव शुभाकांक्षी
चन्दन की कलम शहद में डुबो-डुबोकर भी
हम नाम तुम्हारा लिखने में सकुचाते हैं

1982