chandni

ज्योत्स्ने, ओ निर्जन की रानी!

दूर यहाँ आहट-सी पायी
कुंजों में देखी परछाई
मैं पगली-सी दौड़ी आयी
तू पहले से खड़ी, हाय! करती किसकी अगवानी ?

निर्जन कुंज और यह रजनी
मुझको सच बतला दे, सजनी!
तू भी क्‍यों अभिसारिका बनी?
क्या तूने भी मेरे प्रियतम से मिलने की ठानी?

लगती कितनी आज भली तू
कर सोलह श्रृंगार चली तू
क्यों मुझ-सी, सखि ! गयी छली तू?
देखा-देखी प्रेम नहीं होता है, ओ पाषाणी!

तू तारक-आभूषण पहने
मैं पहनूँ फूलों के गहने
आ, फिर हम-तुम दोनों बहनें
मधुवन की गलियों में उनकी खोज करें मनमानी
ज्योत्स्ने, ओ निर्जन की रानी !

1941