diya jag ko tujhse jo paya
कृपा तो मुझ पर रही अपार
पर किस मुँह से कहूँ, नाथ! ऐसी ही हो हर बार!
अंतर तो न तुम्हें जगदीश्वर!
पर मैं हूँ लज्जित अपने पर
आप न कुछ सँभलूँ, बस रोकर
लूँ झट तुम्हें पुकार
यद्यपि मैं हूँ भ्रांत, विमन भी
फिर भी मुझे न भूलो क्षण भी
देकर कोटि-कोटि जीवन भी
यह ऋण सकूँ उतार!
पिता-पुत्र-संबंध रहे, पर
दो बल, प्रभु! श्रद्धा का पथ धर
तुम तक आऊँ निज से चलकर
छले न यह संसार
कृपा तो मुझ पर रही अपार
पर किस मुँह से कहूँ, नाथ! ऐसी ही हो हर बार!