diya jag ko tujhse jo paya
कौन लेगा ये रत्न उधार?
मैं बैठा हूँ इस जन-संकुल पथ पर जिन्हें पसार!
दुख ने हृदय-सिन्धु कर मंथित
रत्न दिये थे जो मुझको नित
उनको ही लाया मैं जगहित
गूँथ सुरों के तार
जो अरूप छवि है अंतर में
उसे रूप दें ये पल भर में
अपनी चमक-दमक से घर में
रस की करें फुहार
काल-कसौटी पर यदि, प्रियवर!
ये दिन पर दिन हों उज्वलतर
तभी चुकाना इन्हें पहनकर
ऋण तुम अगली बार
कौन लेगा ये रत्न उधार?
मैं बैठा हूँ इस जन-संकुल पथ पर जिन्हें पसार!