diya jag ko tujhse jo paya

देहली का यह जीवन प्यारा न्यारा
मिल पाता क्या मुझे देवमंदिर के शिखरों द्वारा!

ध्वज एकाकी टँगा गगन में
घुल-मिल पाता यों जन-जन में!
कर पाता नित हरि-दर्शन मैं

वहाँ अहं का मारा!

सजते वहाँ दिये, घृत, बाती!
भक्तों की पदरज मिल पाती!
क्या यों पूजन-फल दे जाती

आ चरणामृत धारा!

ध्वज बन जो नभ में लहराये
क्या भू के स्पंदन सुन पाये!
जिस रस से, मेरा कवि गाये

दिया इसीने सारा

देहली का यह जीवन प्यारा न्यारा
मिल पाता क्या मुझे देवमंदिर के शिखरों द्वारा!