diya jag ko tujhse jo paya
उन चरणों की रज भी पाकर
धिक् है जो तू डोल रहा मन निशि-दिन लुब्ध श्वान-सा घर-घर
सोचा भी, कवि, प्रेमी, गायक
जा सकते हैं उस अगम्य तक
कोटि-कोटि साधक, आराधक
झलक न पाते जिसकी पल भर
जग से माँग, प्रतिष्ठा खोयी
क्या दे और तुझे अब कोई!
जो निधि तुझको गयी सँजोयी
पाते हैं उसको बिरले नर
हंस उलूक-दृष्टि क्यों चाहे !
पिक को दादुर-सुर क्यों दाहे!
क्या, यदि जग देखे न सराहे
तुच्छ न है यह वाणी का वर
उन चरणों की रज भी पाकर
धिक् है जो तू डोल रहा मन निशि-दिन लुब्ध श्वान-सा घर-घर