diya jag ko tujhse jo paya

मैं मोती हूँ सागरतल का
पता न है गोताखोरों को अब तक भी जिसकी झलमल का

जब जौहरियों के दल आते
मोती ढूँढ़-ढूँढ़ ले जाते
मुझे अतल में देख न पाते

रहता ढँके आवरण जल का

कैसे प्रिया-कंठ तक जाऊँ
राजसभा में आदर पाऊँ
यदि न विश्व का ह्रदय लुभाऊँ

अपने अंतर की द्युति झलका!

पर कितना भी आज अँधेरा
निश्चय होगा कभी सवेरा
विफल न होगा यों नित मेरा

ताप झेलना बड़वानल का

मैं मोती हूँ सागरतल का
पता न है गोताखोरों को अब तक भी जिसकी झलमल का