diya jag ko tujhse jo paya

विरोधी बन मुँह कहाँ छिपाऊँ!
बोला दूत सृष्टिकर्ता से, ‘शरण कहाँ अब जाऊँ!’

विद्रोही चर की पीड़ा सुन
जगत्पिता रह सके न अकरुण
बोले, ‘आ तुझको दे कुछ गुण

तेरी व्यथा मिटाऊँ’

‘जो भी मुझपर ध्यान लगाये
फिरना उनके दायें-बाँयें
यदि तेरे सुर उन्हें लुभायें

मैं न बीच में आऊँ

‘काम, क्रोध, मद, लोभ, पिशुनता
रह अब जाल इन्हीं से बुनता
मैं भी तेरी कार्य-निपुणता

देख-देख मुस्काऊँ’

विरोधी बन मुँह कहाँ छिपाऊँ!
बोला दूत सृष्टिकर्ता से, ‘शरण कहाँ अब जाऊँ!’

(शैतान की पीड़ा और भगवान् का अनुग्रह)