geet vrindavan

रुक्मिणी हारी जब समझाके
त्तब अपनी वीणा ले आयी सुर में तार मिला के

फिर भी पहला राग न छूटा
जब मोहन का मोह न टूटा
झल्लायी–‘मेरा सुख लूटा

किसने मन उलझाके!

‘चैन इसीमें तो हो आयें
दो दिन ब्रज में रास रचायें
यहाँ राधिका को भी लायें

अपने साथ सजाके

‘पूर्ण स्वामिनी पर अंतर की
अर्धांगिनी बने क्यों घर की!’
हरि ने हँस ग्रीवा ऊपर की

सुनकर व्यंग्य प्रिया के

रुक्मिणी हारी जब समझाके
तब अपनी वीणा ले आयी सुर में तार मिलाके