guliver ki chauthi yatra
अब यह नाव लगे जिस घाट
क्या फिर वहाँ मिलेंगे प्रियजन मुझे जोहते बाट!
दर्शन होंगे उन गुरुजन के
जिनका चिर-स्नेहास्पद बन के
मैंने कभी दिए जीवन के
दिन सपनों से काट!
अब भी प्रकृति-छटा है वैसी
कभी मधुर लगती थी जैसी
आयी है अब यह ऋतु कैसी
मन में हुआ उचाट!
हो आगे नव भी कुल परिचय
मोह न मुझे, न अब विलुप्ति-भय
पाया जो तुमसे, करुणामय!
दिया जगत में बाँट
अब यह नाव लगे जिस घाट
क्या फिर वहाँ मिलेंगे प्रियजन मुझे जोहते बाट!